अमेरिका, चीन का हाल Tom एंड Jerry जैसा, जानिए क्या हैं ड्रैगन के इरादे

लेखक: रहीस सिंहअभी हाल ही में अमेरिका ने प्रशांत महासागर के कुछ द्वीपीय देशों- पलाऊ, मार्शल आइलैंड्स और माइक्रोनेशिया – के साथ ‘कॉम्पैक्ट ऑफ फ्री असोसिएशन’ की स्थापना कर नई साझेदारी की शुरुआत की। 20 वर्षों के लिए किए गए इस समझौते में इन द्वीपीय देशों को 7.1 अरब डॉलर की सहयोग राशि दी जाएगी। बदले में ये देश अमेरिका को प्रशांत महासागर में मिलिट्री बेस बनाने की अनुमति देंगे।संतुलन की जरूरत : सवाल यह है कि क्या यह समझौता अमेरिका और इन द्वीपीय देशों के बीच स्वाभाविक साझेदारी का परिणाम है? एक प्रश्न यह भी है कि प्रशांत क्षेत्र में जो पहले से मौजूद असोसिएशन या गठबंधन हैं, वे क्या एशिया-प्रशांत के देशों को चीनी भय से मुक्त कर सके हैं? क्वॉड, ऑकस, फाइव आइज आदि क्या पैसिफिक क्षेत्र में ब्लू इकॉनमी और मैरीटाइम स्ट्रैटिजी में ऐसा आयाम जोड़ने में कामयाब रहे हैं, जिससे इस क्षेत्र की जियो-पॉलिटिक्स में कोई नया संतुलन बने? यदि नहीं तो इस समझौते से ये द्वीपीय देश कितनी उम्मीदें लगाएं?चीनी चुनौतियों का जवाब : यह समझौता लंबे समय से चल रहे प्रयासों का परिणाम है जिसकी पलाऊ, माइक्रोनेशिया और मार्शल आइलैंड पहले ही मंजूरी दे चुके थे। देरी हो रही थी तो अमेरिका की तरफ से। यूं तो इसे चीन और सोलोमन आइलैंड के बीच हुए सुरक्षा समझौते के जवाब के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन यह इस क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव के समक्ष उपजी चीनी चुनौतियों का मुकाबला करने की रणनीतिक तैयारी वाला कदम है। वैसे, ये तीनों द्वीप औपनिवेशिक राज से मुक्ति के बाद से अमेरिका के ही नियंत्रण में हैं। फिर भी चीन इनकी अर्थव्यवस्था में ही नहीं संप्रभुता में भी सेंध लगाने की कोशिश करता रहता है।हस्तक्षेप के उपाय : दरअसल, चीन कई अन्य द्वीपीय देशों को अपने बेल्ट ऐंड रोड इनीशटिव (BRI) से जोड़कर उनके प्राकृतिक और भौतिक संसाधनों पर कब्जा जमा चुका है और उनकी संप्रभुता में हस्तक्षेप के उपायों पर काम कर रहा है। चूंकि ये तीनों द्वीपीय देश अमेरिकी नियंत्रण में हैं, इसलिए इनकी सुरक्षा और सहयोग की जिम्मेदारी अमेरिका की बनती है। ऐसे में यदि चीन इन देशों की संप्रभुता और सुरक्षा में सेंध लगाने में कामयाब हो जाता है तो यह अमेरिकी रणनीति की असफलता है।दो कदम आगे, ढाई कदम पीछे : तो क्या अमेरिका उत्तर पश्चिमी प्रशांत के इन द्वीपीय देशों के जरिए साउथ चाइना-सी तक चीनी स्ट्रैटिजी को काउंटर कर उसे घेरने में सफल हो पाएगा? क्या वह इस सुरक्षा दायरे को ताइवान तक ले जा पाएगा? वैसे इधर के वर्षों की अमेरिका की ताइवान नीति को देखें तो लगता है कि वह दो कदम आगे बढ़ता है और ढाई कदम पीछे हट जाता है। इसी का परिणाम है कि ताइवान के समर्थक कम होते जा रहे हैं।वाइट पेपर का संदेश : रही बात चीन की तो उसने करीब दो वर्ष पूर्व ‘हम विशाल बनने के लिए तैयार हैं’ नाम से एक वाइट पेपर जारी किया था। इसके साथ ही चीन-ताइवान मामलों के स्टेट काउंसिल कार्यालय और पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के स्टेट काउंसिल इन्फॉर्मेशन कार्यालय ने ‘’s reunification in the new era’ की बात भी की थी। सवाल है कि चीन तो विशाल बनने के लिए तैयार है, लेकिन क्या दूसरे देश भी उसकी इस तथाकथिल विशालता का स्वागत करने को तैयार हैं? अगर यह विशालता थोपी हुई है तो इसे यह नाम न देकर कोई दूसरा नाम ही दिया जाना चाहिए। मसलन साम्राज्यवाद, नव साम्राज्यवाद या विस्तारवाद।चुप्पी का राज : सवाल यह भी है कि इसे अमेरिका ने चुपचाप स्वीकार क्यों कर लिया? श्वेत पत्र में यह संकेत भी दिया गया है कि चीन किसी भी कीमत पर ताइवान का मेनलैंड के साथ एकीकरण करेगा। साफ है कि किसी भी कीमत में युद्ध भी शामिल होता है। यदि चीन ताइवान पर हमला करता है तो क्या अमेरिका इसका सीधा जवाब देगा या वह यूक्रेन पैटर्न पर युद्ध करेगा? ताइवान इस क्षेत्र की जियो-पॉलिटिक्स का केंद्र है। इसलिए इस पर विचार करना जरूरी है।मजबूत सिपहसालार चाहिए : ध्यान रहे, अमेरिका वहीं लड़ाइयां जीत पाया है, जहां उसके सिपहसालार मजबूत रहे। जहां भी वे कमजोर या उदासीन थे, वहां अमेरिका की हार हुई। मिसाल के लिए, अफगानिस्तान को लें तो लगभग 20 वर्षों तक उस देश का ध्वंस किया गया। अंततः उन्हीं खंडहरों पर फिर वही तालिबान कट्टरता और आतंक की हुकूमत कायम कर रहा है, जिसके खिलाफ अमेरिका लड़ रहा था। यही हाल यूरेशियाई क्षेत्र का रहा, जहां वह और उसके सहयोगी यूक्रेन के पीछे खड़े होकर रूस को टारगेट कर रहे थे। इसका नतीजा भी सबके सामने है।कर्ज कूटनीति की कामयाबी : यही वजह है कि मध्य-पूर्व में अब अमेरिका के लिए कभी बिछाई जाती लाल कालीन मोड़ी जाती दिख रही है। फिर प्रशांत क्षेत्र ही अमेरिका की मुख्य रणनीति का क्षेत्र है। लेकिन अब प्रशांत क्षेत्र के देश अमेरिका पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि चीन की कर्ज कूटनीति बहुत हद तक सफल हो रही है। इसके तहत चीन के सरकारी स्वामित्व वाले निगम इन राष्ट्रों में निवेश के नाम धन वर्षा कर रहे हैं और चीन इन राष्ट्रों की संप्रभुता में सेंध लगा रहा है।बहरहाल प्रशांत क्षेत्र में ‘टॉम एंड जेरी’ जैसा गेम खेलते दिख रहे हैं जबकि इसके कुछ देश बड़ी उम्मीदों से अमेरिका की ओर देख रहे हैं और कुछ चीन के भरोसे सपनों के महल निर्मित कर रहे हैं।(लेखक वैदेशिक मामलों के जानकार हैं)