NASA में यह ‘कंगाली’ कैसी? नए स्‍पेस मिशन के लिए पैसा नहीं, कितना बजट जिसे उठा पाने में सुपरपावर लाचार?

नई दिल्‍ली: की सफलता के बाद भारतीय स्‍पेस एजेंसी ISRO का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। अगले कुछ साल में उसकी योजना मंगलयान-2 और शुक्र मिशन जैसे प्रोग्रामों को अंजाम तक पहुंचाने की है। इसरो के लिए सरकार के पास फंड की कोई कमी नहीं है। इसके उलट अमेरिकी स्‍पेस एजेंसी NASA फंड की किल्‍लत से रूबरू है। न सिर्फ उसका बजट घटता जा रहा है। अलबत्‍ता, उसे अपने स्‍पेस प्रोग्रामों के लिए जितना पैसा चाहिए वह भी नहीं मिल रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी स्‍पेस एजेंसी पर ऐसी कंगाली क्‍यों छा गई है? आइए, इसे समझने की कोशिश करते हैं। अक्टूबर 1957 में सोवियत संघ ने पूरी दुनिया को चौंका दिया था। तब उसने पहली आर्टिफिशियल सैटेलाइट स्पुतनिक लॉन्च की थी। इसने अमेरिका को अपने अंतरिक्ष प्रोग्राम को आगे बढ़ाने के लिए हवा दी। वह किसी प्रतिद्वंद्वी महाशक्ति से पीछे नहीं रहना चाहता था। लिहाजा, अमेरिकी सरकार ने अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम में संसाधन झोंककर नासा का गठन किया।NASA के बजट में कटौती हालांकि, प्रतिस्पर्धा की वह भावना खत्म होती दिख रही है। इसका संकेत नासा की बजट कटौती को देखकर लगता है। NASA ने वित्‍त वर्ष 2024 (अक्टूबर 2023 – सितंबर 2024) में अपने सभी मिशन, स्‍पेस एक्‍सप्‍लोरेशन और ऑपरेशन के लिए लगभग 27 अरब डॉलर का अनुरोध किया था। लेकिन, इसके मुकाबले उसे लगभग 9% कम रकम मिली। पिछले वर्ष की तुलना में यह 2% कम थी। अब वित्त वर्ष 2025 के लिए उसने जो बजट अनुरोध रखा है, वह पिछले साल की मांग से 2 अरब डॉलर कम है।सवाल यह है कि नासा को जितने पैसे की जरूरत है क्यों नहीं मिल रहा है? दरअसल, इसका संबंध अमेरिकी सरकार के कर्ज के बोझ से है। पिछले साल देश डिफॉल्ट के कगार पर था। वह अनावश्यक खर्च को कम कर रहा है। नासा के कार्यक्रमों को उसी का हिस्सा माना जाता है। यह दिखाता है कि 1960 के दशक के बाद से समय बदल गया है।उस समय अमेरिका चंद्रमा की दौड़ जीतने और सोवियत संघ को हराने के लिए बेचैन था। उसने नासा पर पैसा लुटाने में कोई संकोच नहीं किया। 1965 में अपने चरम पर नासा की फंडिंग कुल अमेरिकी सरकारी खर्च का लगभग 5% थी। उन सभी संसाधनों का उपयोग करके नासा अपोलो बनाने में सक्षम था। यह चंद्रमा पर पहले मनुष्यों को उतारने वाला अंतरिक्ष मिशन था।यह कार्यक्रम इतना महत्वपूर्ण था कि अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिए प्रत्येक 5 डॉलर में से 3 डॉलर अपोलो मिशन में जाते थे। नासा ने इस पर 25 अरब डॉलर से अधिक खर्च किए। महंगाई की दर को एडज‍स्‍ट कर दिया जाए तो आज के मूल्य में यह रकम 283 अरब डॉलर बैठती है। ठंडे बस्‍ते में म‍िशन हालांकि, 1969 में जैसे ही अमेरिका ने चंद्रमा पर कदम रखा, फंडिंग भी बंद होने लगी। अमेरिका को लगा कि उसने सोवियत संघ को हरा दिया है। अपोलो मिशन ने अमेरिकियों को बांट दिया। नागरिकों के एक वर्ग को यह भी लगा कि सरकार उन लाखों अमेरिकियों की मदद करने में बेहतर पैसा खर्च कर सकती थी जो बुनियादी जरूरतें नहीं पूरी कर सकते थे। इसी के चलते नासा के लॉन्चपैड के बाहर लोगों ने विरोध प्रदर्शन भी किया। इन सबके साथ सरकार ने आगे के मिशनों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। नासा की फंडिंग धीरे-धीरे नीचे की ओर जाने लगी।बेशक, अमेरिका में अभी भी दुनिया में सबसे अधिक अंतरिक्ष खर्च हैं। लेकिन, नासा को बजट आवंटन से 0.4% से भी कम मिलता है। नासा को यह पसंद नहीं है। उसे लगता है कि वह अपने वास्तविक आर्थिक उत्पादन के कारण ज्‍यादा धन का हकदार है। उसका एक्‍चुअल इकनॉमिक आउटपुट 71 अरब डॉलर है। यह उसमें किए जा रहे निवेश का 3 गुना है।