Opinion: सीएए, संपत्ति का बंटवारा, केंद्र से तनातनी… तीन मुद्दों से समझिए बंगाल में किसका चलेगा जादू

शिखा मुखर्जीबंगाल भाजपा के लिए महत्वपूर्ण है। राज्य में कुल 42 में से 2019 में पार्टी ने 18 लोकसभा सीटें जीती थीं। बीजेपी को केंद्र सरकार में तीसरा कार्यकाल बरकरार रखना है तो कम-से-कम बंगाल में पिछला प्रदर्शन तो दुहराना होगा। लेकिन राज्य में पार्टी का अभियान लड़खड़ाता रहा है। इतना कि बंगाल के सात चरणों के चुनाव के तीन चरण पूरे होने के बाद भाजपा खुद को ऐसे मोड़ पर पा रही है जहां से कहानी को बचाना मुश्किल है।सीएए पर बीजीपी के दांव का क्या असर?भाजपा के नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विफल हो गए हैं। खास तौर पर तब जब प्रश्न यह हो कि राज्य के लोगों के साथ केंद्र का व्यवहार कैसा होगा। इस सवाल के साथ एक भी चूक बेचैन मतदाताओं को राजनीतिक बाड़े से बाहर निकालने के लिए काफी होती है। और ऐसा लगता है कि सीएए ने ठीक यही किया है। सीएए के तहत नियमों की जल्दबाजी में अधिसूचना जारी किए जाने को भाजपा का मास्टरस्ट्रोक बताया गया। लेकिन लगता है कि यह पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित होगा। मोटे आकलन के मुताबिक, मतदाताओं की पसंद पर इसका असर 20 लोकसभा क्षेत्रों तक फैलेगा।संपत्ति के बंटवारे का मुद्दा उछाल फंस गई बीजेपी?जैसा कि ‘संपत्ति के बंटवारा’ पर दोषारोपण का खेल खेला गया, उसी तरह मतदाताओं का एक वर्ग यह आकलन करने लगा है कि भाजपा का चुनाव प्रचार 2047 तक विकसित भारत से हटकर बहुसंख्यकों के बीच भ्रम पैदा करने लगा। बीजेपी ने सभी विपक्षी दलों पर हिडन एजेंडे को आगे बढ़ाने का आरोप लगाया। भाजपा ने इस बात पर जोर दिया है कि कथित तौर पर ये सभी दल अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण का वादा कर रहे हैं। भाजपा ने बताया कि दरअसल संपत्ति के पुनर्वितरण का एक मतलब यह भी है कि दलितों और आदिवासियों से आरक्षण छीनकर मुसलमानों को दिया जाएगा।बीजेपी के इस प्रचार के खिलाफ बंगाल में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और सीपीएम के नेतृत्व वाली वामपंथी पार्टियां एक साथ आ गईं। और यह बीजेपी के लिए अच्छा नहीं रहा। इस हमले से सिर्फ इतना ही सुनिश्चित हुआ है कि बंगाल में बीजेपी के दुश्मनों में दोस्ती हो गई और वो भाजपा को हराने के लिए एकजुट हो गए हैं। खास तौर पर चुनाव के तीसरे चरण से बीजेपी विरोधियों में जबर्दस्त एका दिखने लगा है। आगे दक्षिण बंगाल में ज्यादा से ज्यादा लोकसभा क्षेत्रों में मतदान होने हैं। वहां ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि एक महत्वपूर्ण बदलाव हो रहा है। इस आंदोलन के नतीजे समय के साथ सामने आएंगे। लेकिन जो पहले से ही स्पष्ट है वह यह है कि भाजपा ने जिन सभी पार्टियों को एक साथ जोड़ दिया है – कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और सीपीएम के नेतृत्व वाली वामपंथी – उनका मुख्य दुश्मन अब भाजपा ही है।पिछले चुनावों की उलझन और दुविधा खत्म हो गई है। तृणमूल 2021 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव दोनों में ही प्रतिद्वंद्वी है, पहले जैसी दुश्मन नहीं। आइए इस बिंदु पर गौर करें। कांग्रेस, सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस सभी एक ही खेमे में हैं। इनका आम दुश्मन भाजपा है, जिसे ममता बनर्जी और वामपंथियों ने ‘बाहरी’ करार दिया है। ऐसा लगता है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने 2021 के राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजों को सही विश्लेषण नहीं किया। 294 में से 77 सीटें जीतना यह संदेश था कि उत्तर भारत में संघ परिवार की नियमावली में निहित हिंदुत्व का जादू बंगाल में काम नहीं करता। बंगाल में बीजेपी की कुछ और मुश्किलेंसीएए के नियमों के अलावा भाजपा की कई असफलताओं पर विचार करना भी लाजिमी है। केंद्र सरकार अनियमितताओं का हवाला देते हुए मनरेगा और पीएमएवाई के लिए भुगतान जारी नहीं कर रही है। फिर, केंद्रीय एजेंसियों के छापे पड़ रहे हैं। राज्यपाल सीवी आनंद बोस के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप पर भी भाजपा और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच तीखी नोकझोंक देखने को मिल रही है। कुल मिलाकर, राजनीतिक रूप से अनुभवी बंगाली मतदाता के पास पिछली प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने के लिए पर्याप्त कारण हैं।पीछे मुड़कर देखें तो 2019 के चुनाव नतीजों ने बीजेपी को एक छोटी पार्टी से मुख्य विपक्ष में बदल दिया। उस चुनाव में सीपीएम शून्य पर सिमट गई जबकि कांग्रेस ने बहरामपुर और मालदा दक्षिण के अपने गढ़ों को बरकरार रखा। यह तब था जब मोदी लहर पूरे देश में चल रही थी और इतनी तेज हो गई थी कि बंगाल के मतदाताओं को लगा कि एक नई मजबूत ताकत उभरी है। बड़ी संख्या में सीपीएम से वोट बीजेपी को मिले। वाम दलों का वोट प्रतिशत 2014 में 29.9 से घटकर 7.5 हो गया। इसके विपरीत, 2014 में बीजेपी का वोट शेयर 17% से बढ़कर 40% हो गया।इस बार होगी वामदल की उभार?मुर्शिदाबाद एक अलग कहानी बयां करता है। इस बार, सीपीएम को भरोसा है कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में मतदाता उसके पाले में लौट रहे हैं। राज्य पार्टी प्रमुख और पोलित ब्यूरो सदस्य मोहम्मद सलीम ने मुर्शिदाबाद से चुनाव लड़कर तीन चीजों पर दांव लगाया है। पहला, कांग्रेस का वोट सीपीएम में ट्रांसफर कराने का। दूसरा, शिक्षक भर्ती घोटाला, संदेशखली आदि के मद्देनजर तृणमूल जबकि बेरोजगारी और महंगाई पर कथित विफलताओं को देखकर भाजपा, दोनों से सत्ता विरोधी वोटों को अपने पाले में करना। तीसरा, भाजपा समर्थक लहर का अभाव। नए गठबंधन इंडिया के भारी-भरकम बैनर तले छिपे चेहराविहीन विपक्ष ने साझा घोषणापत्र की परवाह नहीं की। लेकिन यह एक स्मार्ट, ऑर्गेनिक स्ट्रैटिजी साबित हो सकती है जो बंगाल में उतनी ही कारगर साबित होगी जितनी महाराष्ट्र, बिहार और शायद कुछ हद तक उत्तर प्रदेश में। भाजपा के खिलाफ सारा खेल वोटों को एकजुट करने और मतदाताओं के सामने सरल विकल्प खड़ा करने का है।मध्य की राजनीति का दावा, जिसमें दाएं और बाएं को शामिल किया गया है, असंतुलन को ठीक करने जैसा है। अगर सामूहिक विपक्ष और उसकी स्पष्ट रूप से तगड़ी रणनीति भाजपा को मध्य मार्ग पर कब्जे से थोड़ा भी दूर धकेल सकती है, तो यह भी एक बड़ी सफलता होगी। सीपीएम बंगाल में अगर लोकसभा चुनाव में वोट शेयर बढ़ाकर जीत दर्ज करती है तो यह निश्चित रूप से यह सबूत होगा कि पार्टी फिर से खड़ा हो रही है। ऐसा हुआ तो हाशिये पर गए वाम दलों की राजनीति धीरे-धीरे केंद्र की ओर बढ़ पाएगी। लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।