नई दिल्ली: दिल्ली में चुनावी नतीजों का असर सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं होगा। इसका असर आने वाले दिनों में देश की विपक्ष की राजनीति से लेकर संसद के भीतर आपसी समीकरणों पर देखने को मिलेगी। इसकी एक झलक दिल्ली नतीजों के फौरन बाद इंडिया गठबंधन के नेशनल कॉन्फ्रेंस और शिवसेना-यूबीटी की तरफ से आए बयानों से मिल रही थी।
जम्मू कश्मीर के सीएम और नेशनल कान्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने दिल्ली चुनाव में हुई आप की हार के बाद कहा कि ‘और लड़ो आपस में’ तो उद्धव ठाकरे की सेना के संजय राउत का कहना था कि बेहतर होता कि दिल्ली में आप और कांग्रेस मिलकर लड़ते, तब की हार निश्चित होती।
इंडिया गठबंधन में जितने भी क्षेत्रीय दल हैं, वे चाहते हैं कि अपने-अपने राज्यों में वे बीजेपी के खिलाफ प्रमुख भूमिका में रहें और कांग्रेस वहां या तो सहायक की भूमिका में हो या चुनाव न लड़े। वे अपने-अपने राज्यों में ड्राइविंग सीट पर खुद बैठना चाहते हैं। यही वजह है कि दिल्ली चुनाव में एसपी, शिवसेना, टीएमसी और नेशनल कान्फ्रेंस जैसे तमाम दल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर आप का समर्थन करते दिखे।
हालांकि शनिवार को जिस तरह से कांग्रेस ने महज कुछ अर्से में जमीन पर सक्रिय होकर आप का खेल बिगाड़ा, उसके चलते माना जा रहा कि क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस को लेकर अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार करना होगा।
दिल्ली के बाद सहयोगी दलों को इतना तो समझ में आ गया कि कांग्रेस भले ही गठबंधन को जिताने में बड़ी भूमिका न निभाए या अपने दम पर जीत या जितवा नहीं सकती। कई राज्यों में अपने वजूद को तरसती कांग्रेस की हैसियत इतनी तो अभी भी जरूर है कि वह हरवा दे।
बीजेपी को रोकने के लिए साथ होना जरूरी!दरअसल, पिछले कुछ अर्से से यूपी से लेकर तमाम राज्यों में कांग्रेस ने संगठन की मजबूती की कवायद शुरू की है और वह संगठन की मजबूती की बात कर रही है। उससे क्षेत्रीय दलों के लिए चिंता बढ़ रही है।
अगर कांग्रेस ने अपने दम पर चुनावों में जाने का फैसला किया तो उनका खेल बिगड़ सकता है। यही वजह है कि संजय राउत, उमर अब्दुल्ला जैसे तमात नेता और दल, जो कुछ समय पहले तक कह रहे थे कि इंडिया गठबंधन सिर्फ लोकसभा के लिए था, उन्हें अपने इस कथन पर सोच पर फिर से सोचना होगा।
जाहिर सी बात है कि ऐसे में आने वाले दिनों में होने वाले असेंबली चुनावों में एक बार फिर गठबंधन को बनाए रखने की कोशिश होंगी, ताकि बीजेपी को रोका जा सके। इसकी पहली परीक्षा बिहार में होनी है। बिहार में आरजेडी के साथ कांग्रेस के रिश्ते बेहतर ही हैं।
राहुल गांधी पिछले महीने पटना गए थे तो वह अचानक राबड़ी निवास पहुंचे, जहां उन्होंने लालू यादव और तेजस्वी यादव से मुलाकात की। अगले साल पश्चिम बंगाल, केरल, असम और तमिलनाडु में चुनाव होने हैं। इसमें तमिलनाडु में कांग्रेस पहले ही डीएमके के साथ गठबंधन में है। केरल में भी आईयूएमएल जैसे दलों के साथ यूडीएफ गठबंधन है।
केरल में भी आईयूएमएल और सीपीएम जैसे दलों का शनिवार को बयान सामने आया कि इंडिया गठबंधन में मतभेद ने ही दिल्ली में बीजेपी के लिए जीत का रास्ता प्रशस्त किया। इंडिया गठबंधन के भीतर लोकसभा चुनावों के अलावा भी एकता की जरूरत अब क्षेत्रीय दलों को भी महसूस हो रही है।
यूपी में एसपी को शायद इसका अंदाजा हो चला है। उसके रुख में आया बदलाव यह दिखाता है। यूपी में कांग्रेस ने उपचुनाव से दूरी बनाकर कहीं न कहीं एक सकारात्मक घटक दल की तरह अपना सहयोग देने की कोशिश कर संकेत दिया।
सीधी सी बात है कि कुछ जगह कांग्रेस भी ऐसा सहयोग अपने घटक दलों से चाहेगा। देखना होगा कि अगले साल होने वाले चुनाव में टीएमसी और ममता दीदी, एकला चलो रे का राग अलापती हैं या फिर वह बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस को साथ लेने के लिए बड़ा दिल दिखाएंगी।
आप और केजरीवाल की इस हार से कहीं न कहीं क्षेत्रीय दलों की उस मांग को भी झटका लगा है, जिसमें वह इंडिया गठबंधन की कमान किसी और को देने की बात कर रहे थे।
माना जा रहा है कि इन नतीजों का असर कहीं न कहीं संसद के भीतर फ्लोर कॉर्डिनेशन पर भी दिखेगा। देखना रोचक होगा कि क्या टीएमसी व आप अभी भी संसद सत्र में कांग्रेस से दूरी बनाए रखेंगे या फिर भारी मन से ही सही एकजुटता के लिए साथ आएंगे।