PM फेस बनने को क्यों तैयार नहीं हो रहे बिहार के CM नीतीश कुमार ? कारण जान कर रह जाएंगे दंग!

ओमप्रकाश अश्क, पटना: बिहार के सीएम नीतीश कुमार विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन खुद पीएम फेस बनने से इनकार करते रहे हैं। आरजेडी और उनकी पार्टी जेडीयू लगातार नीतीश को पीएम मटेरियल कह रहे, लेकिन नीतीश अपनी एक ही रट पर अड़े हैं- उन्हें पीएम नहीं बनना। अघोषित तौर पर उनकी भूमिका महज कोआर्डिनेटर की दिख रही है। अभी तक तो वे घर-घर जाकर विपक्षी नेताओं से मुलाकात करते रहे हैं, लेकिन बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की सलाह पर वे पटना में विपक्षी दलों की बैठक बुलाने के लिए तैयार हो गए हैं। हालांकि उन्हें इसमें भी संदेह के सूत्र नजर आते हैं। उनका कहना है कि हमें पटना में बैठक बुलाने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन सब लोग इसके लिए तैयार हों तब न। इन सबके बीच बड़ा सवाल यह है कि नीतीश खुद पीएम फेस बनने से क्यों इनकार कर रहे हैं ?विपक्षी एकता बन पाने का भरोसा नहीं हो रहा नीतीश कुमार कोशिश तो कर रहे, लेकिन उन्हें विपक्ष के एक होने का भरोसा नहीं हो पा रहा है। नीतीश को तो अभी तक एक साथ सबके जुटने पर भी संदेह है। तभी तो वे बार-बार यह बात कह रहे हैं कि उनकी कोशिश अधिक से अधिक विपक्षी दलों को जोड़ने की है। कांग्रेस से कई दलों को चिढ़ है। आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और टीआरएस जैसे दल कांग्रेस को बीजेपी की तरह अपना दुश्मन मानते हैं। विपक्षी एकता में कांग्रेस का वर्चस्व उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाएगा। यही वजह है कि ममता बनर्जी ने बड़ी चालाकी से नीतीश को यह सलाह दे डाली कि विपक्षी दलों की बैठक जेपी आंदोलन की भूमि पर यानी पटना में होनी चाहिए। इससे फायदा यह होगा कि कांग्रेस का वर्चस्व टूटेगा।कांग्रेस आसानी से नहीं छोड़ेगी पीएम का दावा कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है। तकरीबन डेढ़ सौ साल का इसका इतिहास रहा है। राहुल गांधी के मानहानि मामले में उलझने से उसकी गति धीमी पड़ गई है। तीन-चार महीनों तक राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के जरिए अपनी खोई जमीन हासिल करने की पूरी कोशिश भी की थी। परसेप्शन भी कांग्रेस के प्रति ठीक होने लगा था। इस बीच सूरत की अदालत ने उन्हें दो साल की सजा सुना दी। यानी सजा अगर बरकरार रही तो वे अगले आठ साल तक चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। हालांकि मामला अब हाईकोर्ट पहुंच गया है। किस्मत ने साथ दिया तो उन्हें राहत भी मिल सकती है। इसलिए कांग्रेस अपने पत्ते अभी खोल नहीं रही। अगर हाईकोर्ट से राहुल को राहत मिल जाती है तो निःसंकोच वे पीएम पद के दावेदार बन जाएंगे। अगर ऐसा न भी हुआ तो कांग्रेस अपना उम्मीदवार किसी और को बना सकती है। मल्लिकार्जुन खरगे तब सबसे बड़े दावेदार होंगे। कांग्रेस ने नीतीश को अभी यही टास्क दिया है कि वे समान विचारधारा वाले दलों को एकजुट करें। नेता के सवाल पर बाद में मिल-बैठ कर तय कर लेंगे। यही वजह है कि नीतीश पीएम पद के दावेदार बनने से हिचक रहे हैं। बीजेपी की ताकत का एहसास है नीतीश को नीतीश कुमार राजनीति के परिपक्व खिलाड़ी हैं। उन्हें विपक्ष और बीजेपी की ताकत का एहसास है। बिहार में वह 2014 में देख चुके हैं कि उनकी पार्टी कितने पानी में है। तब जेडीयू को 2 और आरजेडी को 4 सीटें मिली थीं। बीजेपी ने वह चुनाव भी नरेंद्र मोदी के नाम पर ही लड़ा था। उसे अकेले 22 सीटें आई थीं। 2019 में नीतीश कुमार जब बीजेपी के साथ आ गए तो 17 सीटों पर उम्मीदवार उतार कर जेडीयू ने 16 सीटें जीत ली थीं। यानी नीतीश भी जानते हैं कि बीजेपी के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी का असर चाहे जितना हो, लेकिन चेहरा नरेंद्र मोदी का ही रहने के कारण 2024 में बीजेपी को परास्त करना आसान नहीं होगा। अगर आरजेडी-जेडीयू की सम्मिलित ताकत हो, तब भी कम से कम बिहार में बीजेपी को धूल चटाना आसान नहीं होगा।जेडीयू से जा चुके हैं कई भरोसेमंद साथी नीतीश कुमार को यह भी पता है कि अब लव-कुश समीकरण वाले भरोसेमंद साथी उनके साथ नहीं रहे। उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश के खिलाफ आरएलजेडी बना लिया है तो आरसीपी सिंह किसी दल के बैनर बिना ही स्वजातीय वोटों का नुकसान करने के लिए नीतीश के पीछे पड़े हैं। बीजेपी से उन्हें खाद-पानी मिल रहा है तो जाहिर है कि उन्हें संसाधनों की कोई कमी नहीं है। महागठबंधन में रहने के बावजूद नीतीश को भरोसा नहीं हो रहा कि उनकी पार्टी की स्थिति आसन्न लोकसभा चुनाव में 2020 के सेंबली इलेक्शन से शायद ही बेहतर हो पाए। ऐसे में उनके सामने नैतिक संकट खड़ा होगा। कम सांसदों के साथ वे कैसे पीएम पद की दावेदारी कर सकते हैं।अब तो अधिक भाग-दौड़ भी संभव नहीं है नीतीश में काम करने की ऊर्जा भले ही हिलोरें मारती हो, पर यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि 73-74 साल की उम्र में आदमी भाग-दौड़ से बचना चाहता है। ऐसा नहीं है कि नीतीश को बैठे-बिठाए पीएम की कुर्सी मिल जानी है। इसके लिए देश भर में तूफानी भाग-दौड़ की जरूरत पड़ती है। अगर वे पीएम उम्मीदवार बनते हैं तो उन्हें बिहार से कुछ दिनों के लिए वैराग्य लेना पड़ेगा। और, नीतीश कुमार ऐसा चाहेंगे नहीं। बिहार की सत्ता के लिए तो वे गठबंधन बदलते रहे हैं। कभी एनडीए के साथ तो कभी महागठबंधन से अपने रिश्ते जोड़ते रहे हैं। निश्चित छोड़ वे अनिश्चित की ओर जाने का जोखिम क्यों मोल लेना चाहेंगे। कुर्सी के लिए ही तो उन्होंने महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव को 2025 तक के लिए झुनझुना थमा दिया है। (ये लेखक के निजी विचार हैं)