अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति संशोधन विधेयक 1967 में पेश
संविधान के अनुसार अनुसूचित जाति और जनजाति की सूची में परिवर्तन होता रहता है। इसमें संशोधन को लेकर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक 10 जुलाई 1067 को लोकसभा के पटल पर रखा गया। विचार-विमर्श के लिए उसे एक संयुक्त समिति के सुपुर्द किया गया। जिसके सदस्य लोहरदगा के सांसद कार्तिक उरांव भी थे। समिति ने बहुत छानबीन के बाद 17 नवंबर 1969 को लोकसभा में सिफारिश के साथ अपनी रिपोर्ट सौंप दी। इस सिफारिश में विधेयक में आवश्यक बदलाव का सुझाव दिया गया। विधेयक में प्रस्ताव रखा गया कि जिस व्यक्ति ने भी जनजाति मत और विश्वासों का परित्याग कर दिया है, ईसाई या इस्लाम धर्म अपना लिया है, वो अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा। संसद की संयुक्त समिति ने इसे प्रायः सर्वसम्मति से पारित किया था। इसके बाद एक वर्ष तक इसकी बहस लोकसभा में नहीं हुई। देश के कोने-कोने से ईसाई मिशन के प्रतिनिधि दिल्ली आकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात कर विरोध जताने लगे।
348 सांसदों ने इंदिरा गांधी को पत्र देकर समर्थन का आग्रह किया
ईसाई मिशनियों के विरोध के बावजूद 348 सांसदों ने संयुक्त समिति की सिफारिश को स्वीकार करने का आग्रह इंदिरा गांधी से किया। 10 नवंबर 1969 तक इस समर्थन पत्र पर लोकसभा के 322 और राज्यसभा के 26 सदस्यों ने हस्ताक्षर कर मांग पत्र प्रधानमंत्री को सौंपा। जिसके बाद 17 नवंबर 1970 को लोकसभा में इस विधेयक पर बहस शुरू हो गई। उसी दिन नागालैंड और मेघालय के मुख्यमंत्री नई दिल्ली आकर प्रधानमंत्री से मुलाकात की। 17 नवंबर 1970 को भारत सरकार की ओर से संशोधन आया कि संयुक्त समिति की सिफारिश विधेयक से हटा ली जाए। कार्तिक उरांव ने इसका जोरदार तरीके से विरोध किया। 24 नवंबर 1970 को कार्मिक उरांव को विधेयक पर अपनी बात रखनी थी, उसी दिन सुबह में कांग्रेस पार्टी के सभी सदस्यों को सचेतक का संदेश मिला कि पार्टी के सभी सदस्य सरकार के हर संशोधन में साथ दें। कार्तिक उरांव ने करीब 55 मिनट तक पार्टी के अंदर सचेतक के साथ इस पर बहस की। शांत वातावरण में बहस हुई। उस दौरान 75 प्रतिशत सदस्यों ने संयुक्त समिति का साथ दिया।
सरकार ने विधेयक पर बहस को ही स्थगित करना उचित समझा
इस विधेयक पर ऐसा क्षण आया कि अगर सरकार अपनी जिद पर अड़ती, तो कांग्रेस के प्रायः सभी सदस्य संसद में सचेतक की अवहेलना करने के लिए तत्पर थे। ऐसी परिस्थिति में सरकार ने विधेयक पर बहस को स्थगित करना उचित समझा। सरकार की ओर से आश्वासन दिया कि विधेयक पर बहस उसी सत्र के अंत अंत में की जाएगी। लेकिन 27 दिसंबर 1970 को लोकसभा भंग हो गई। ये मांग अब तक अधूरी है।