नई दिल्ली: पंजाब में क्या हो रहा है? जब से खालिस्तान समर्थक संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह का नाम सुर्खियों में आया है, हर किसी के मन में यह सवाल है। पिछले दिनों तलवार, बंदूकें और लाठियां लेकर अमृतपाल के समर्थकों ने पंजाब के एक थाने पर धावा बोला दिया था। पंजाब के रक्तरंजित इतिहास की यादें जेहन में फिर से तैरने लगीं। वैसे, यह सच है कि पंजाब की माटी में या कहें कि DNA में ही कुछ ऐसा है कि वह किसी भी गलत चीज को बर्दाश्त नहीं करता है। लेकिन अपने देश में ही विरोध की यह तस्वीर कई तरह के सवाल खड़े करती है। पंजाब के हालात को बारीकी से समझने वाली वरिष्ठ पत्रकार सरजू कौल ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लेख लिखा है। वह लिखती हैं कि पंजाबी, खासतौर से सिखों को बहादुरी और प्रतिरोध की भावना के गौरवशाली इतिहास के लिए जाना जाता है। यही वजह है कि उनकी पहल या प्रोटेस्ट को चारों तरफ से समर्थन मिल जाता है, भले ही यह सरकारों और उनकी नीतियों के खिलाफ लड़ाई ही क्यों न हो। सिकंदर से लेकर अंग्रेजों तक सरजू कौल सिखों के इतिहास का जिक्र करते हुए कहती हैं कि ताकतवर हुक्मरानों के आगे प्रतिरोध करने के साहस का सम्मान होता आया है और इसकी जड़ें भौगोलिक, ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से जुड़ी हैं। बंटवारे से पहले का पंजाब याद कीजिए, इस भूमि पर सिकंदर से लेकर अंग्रेजों तक से लड़ाइयां लड़ी गई हैं। तत्कालीन आक्रमणकारियों, आक्रांताओं से लड़ते हुए सिख गुरुओं ने शहादत दी है। इसे आज पूरी दुनिया में गर्व और सम्मान की नजरों से देखा जाता है। समय के साथ यह भी देखा गया कि पंजाब की कभी दिल्ली के साम जमी नहीं। हाल में पूरे देश ने इसे किसान आंदोलन के तौर पर देखा, जब एक साल तक पंजाबी किसान दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले रहे। इसमें पंजाब का पूरा समाज शामिल था। उन्होंने पैसे, सामान और पूरा समय दिया। आखिरकार सरकार ने तीनों विवादास्पद केंद्रीय कानूनों को वापस ले लिया। पंजाब के लोगों में यह आम भावना है कि सिख अकेला ऐसा समुदाय है जो पुलिस हो, कोर्ट या सरकार से बात करते हुए हमेशा आपके साथ खड़ा रहेगा। वैसे भी सिखों को बहादुर माना जाता है, जो किसी से नहीं डरते। सिख गुरु हरगोबिंद सिंह ने ‘मीरी-पीरी’ का सिद्धांत देते हुए अत्याचार के खिलाफ लोगों को बचाने की शिक्षा दी थी। यही वजह है कि घर ढहाया गया हो, पुलिस फायरिंग हो या कोई और मसला सिख समाज खड़ा दिखता है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की नींव रखी और सशस्त्र विरोध किया। सिख शहादत के लिए तैयार रहते हैं, गुरु जी के चार बेटों की शहादत ने इसे साबित भी किया। अंग्रेजों ने भी महसूस किया था कि सिखों को संभालना मुश्किल है। 20वीं सदी की शुरुआत में ICS अधिकारी सर माल्कम एल. डार्लिंग ने अपनी किताब में लिखा था कि पंजाबी ‘गुस्सा करने वाले और बहादुर’ लोग होते हैं। माल्कम काफी समय पंजाब में ब्यूरोक्रेट रहे थे। उन्होंने यह भी कहा था कि सिखों के भीतर वो क्वाॉलिटी है जो भारत को चाहिए- ऊर्जा, उद्यमशीलता, स्वतंत्रता की भावना। सिखों की एक और विशिष्टता है कि ये रोज गुरुद्वारे में होने वाली अरदास में सिखों के संघर्ष और इतिहास को याद करते हैं। इससे समुदाय के लोग दमन और अन्याय के खिलाफ अतीत की घटनाओं को याद रखते हैं। पंजाबी गानों में भी सत्तारूढ़ ताकतों के दमन के खिलाफ खड़े होने वालों का गुणगान किया जाता रहा है। यह सिद्धू मूसेवाला के गानों में भी था, जिसके चलते युवा पंजाबियों में वह काफी पॉपुलर हो गए थे। उन्हें एक तरह से हीरो माना गया। आखिर में कौल लिखती हैं कि गांव और कस्बों के युवाओं का मोहभंग होना अमृतपाल सिंह और उनके संगठन का सपोर्ट बेस बढ़ने की वजह बना। राजनीतिक और धार्मिक दोनों संगठनों से दूर होने से अमृतपाल की तरफ युवाओं का रुझान बढ़ता गया। ऐसे समय में, पंजाबी युवाओं को लगने लगा कि खेती में उनका भविष्य नहीं है। उन्हें रोजगार के अच्छे अवसर मिलने की उम्मीद नहीं दिखी, कनाडा-यूके या ऑस्ट्रेलिया जाने के सपने ने भी उन्हें अलग कतार में लाकर खड़ा कर दिया। वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है कि राजनीतिक और धार्मिक लीडरशिप की विफलता पंजाब को 40 साल पहले 1978 की स्थिति में लाकर खड़ा कर सकती है जब प्रदेश में आतंकवाद और भिंडरावाले का कद बढ़ रहा था।