जंगल बचाने के लिए आदिवासी समाज की अनूठी परंपरा, होली पर लकड़ी जलाते नहीं बल्कि….

रंगों के पर्व होली को लेकर हमारे समाज में कई तरह की मान्यताएं और रिवाज हैं, कहीं सिर्फ गाय के गोबर से बने उपलों की होली जलाई जाती है, तो कहीं लकड़ी की. शहरी संस्कृति का अनुसरण करने वाले ग्रामीण भी गोबर से बने उपलों की बजाय लकड़ी की होली जलाने लगे हैं. ऐसे में मात्र होली दहन के लिए हरे-भरे पेड़ों की बलि चढ़ाई जाती है, जो पर्यावरण हित में नहीं है, लेकिन इन सब से हटकर खंडवा जिले के वन क्षेत्र में रहने वाले कुछ आदिवासी भी है ,जो होली दहन के लिए पेड़ नहीं काटते, बल्कि एक अनोखी परंपरा का निर्वाह करते हुए जंगल के वृक्षों से टूटी हुई शाख या टहनी को उठाकर “होलीमाल” के नाम से चयनित स्थान पर रखते है.
होलीमाल नामक यह स्थान आदिवासियों के लिए पूज्य होता है. जिस तरह मंदिर में भगवान को पुष्प अर्पित किए जाते हैं उसी तरह होलीमाल को पेड़ से गिरी हुई टहनी अर्पित की जाती है, जंगल से गुजरने वाला हर शख्श जंगल में पड़ी हुई बेकार टहनी को उठाकर होलीमाल को अर्पित करता है. यह सिलसिला वर्ष भर चलता है , और इस तरह एक-एक करके होलीमाल को अर्पित की गई अनुपयोगी टहनी का ढेर लग जाता है. खंडवा जिले के ग्राम कमलिया के जसवंत बारे बताते है कि यहां उनके पूर्वजों के समय से होली माल को पूजा जाता है, कवेश्वर के आगे कमलिया के समीप जंगलों में इसी तरह की पवित्र जगह है होलीमाल
होली चमत्कारिक रूप से खुद ब खुद जल उठती है
होलिमाल से जुडी एक कहानी इस क्षेत्र में प्रचलित है. ऐसी धार्मिक मान्यता है कि होलिका पूनम की रात यह होली चमत्कारिक रूप से खुद ब खुद जल उठती थी, इस चमत्कार को परखने के चक्कर में एक ग्रामीण, दैवीय शक्ति से अभद्रता कर बैठा, तब से यह होली स्वमेव जलना बंद हो गई. वन विभाग के अधिकारी सुरेश बड़ोले भी मानते है कि यह पर्यावरण लिहाज से अच्छी पहल है, जिससे वे वन क्षेत्र की सुखी लकड़ी को एक स्थान पर एकत्र करते है और धार्मिक जीवन और परम्परा के नाम पर पर्यावरण को बचाने में लगे है, ऐसी परम्परा को बढ़ावा देना चाहिए. जिससे वन को बचाया जा सके.
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आदिवासी समाज की ये परंपरा है पर्यावरण के हित में
खंडवा के पर्यावरण प्रेमी युवाओं को यह अनोखी होली अपनी और खींच ला रही है, यही वजह है कि शहर से चालीस किलोमीटर दूर सघन जंगल में विवेक भुजबल जैसे युवा उत्सुकतावश होलीमाल देखने पहुंच रहे हैं. इस तरह होलीमाल के जरिये धार्मिक परम्परा का निर्वाह भी हो जाता है और होली के लिए लकड़ी की जुगाड़ भी. वह भी पेड़ो को नुकसान पहुंचाए बगैर आदिवासी समाज की यह परम्परा ना सिर्फ पर्यावरण के हित में है बल्कि आधुनिक कहे जाने वाले सभ्य समाज को एक दिशा भी प्रदान करती है.
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