जिसने सलाखों के पीछे से UP की सियासत में सनसनी फैलाई! देश के पहले ‘बाहुबली’ हरिशंकर तिवारी की कहानी

पूर्वांचल को माफियाओं का गढ़ कहा जाता है और इनमें से कई माफिया ऐसे रहे जो बाद में सफेदपोश यानी नेताजी बन गए, लेकिन क्या आप जानते हैं ये शुरूआत कैसे हुई। माफिया और फिर सियासत की कुर्सी का सफर किसने सबसे पहले नापा। चलिए इसके लिए आपको थोड़ा पीछे चलना होगा। 1985 उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की चिल्लूपार विधानसभा सीट अचानक सुर्खियों में आ गई। वजह थी इस सीट पर एक ऐसे शख्स का जीत दर्ज करवाना जो उस वक्त जेल में बंद था। भारतीय राजनीति में ये एक नया और सबसे पहला मामला था जब किसी ने जेल से चुनाव लड़कर जीत दर्ज करवाई हो। ये विधायक थे हरिशंकर तिवारी। ब्राह्मण जाति से आने वाले हरिशंकर तिवारी ने कांग्रेस के मार्कंडेय नंद को 21,728 वोटो से हराया और यहीं से शुरूआत हुई राजनीति के एक नए रूप की,बाहुबल की राजनीति की।

छात्र नेता से बनाई पहचान
हरिशंकर तिवारी बेशक पहली बार विधायक बनकर चर्चा में हों, लेकिन उत्तर प्रदेश में खासकर गोरखपुर के माफिया राज में उनके नाम का डंका पहले से ही बजता था। सत्तर के दशक का वो दौर जब देश की राजनीति काफी तेजी से बदल रही थी। जेपी की क्रांति और कांग्रेस को मिल रहीं चुनौतियों का असर देश के हर राज्य में नज़र आ रहा था। ऐसे में राजनीति का गढ़ कहे जाने वाला उत्तरप्रदेश कैसे पीछे रहता। जेपी के मूवमेंट ने छात्रसंघ की राजनीति को नई दिशा दे दी थी और यूपी के छात्र नेता भी इसे अछूते नहीं थे। विश्वविद्यालयों में वर्चस्व की लड़ाई की शुरूआत हो चुकी थी। उस वक्त हरिशंकर तिवारी, गोरखपुर विश्वविद्यालय के छात्र नेता के रूप में एक बड़ा नाम बनकर उभरे थे।

ब्राह्मण-ठाकुर गैंग आमने-सामने
छात्रसंघ की राजनीति सिर्फ कॉलेज तक ही सीमित नहीं थी बल्कि विश्वविद्यालय के ये गैंग अक्सर अपनी धाक जमाने लिए, कॉलेज से बाहर भी गुंडागर्दी करते नज़र आते। अलग-अलग गुटों में मारपीट, गोलियां चलाना, चाकू मारना, किडनैपिंग जैसी वारदातें आम थीं। उस दौरान हरिशंकर तिवारी के सामने बलवंत सिंह का गैंग हुआ करता था। इन दोनों गुटों में अक्सर भिड़ंत की खबरें आती रहती। हरिशंकर तिवारी और बलवंत सिंह गोरखपुर में अपनी दबंगई कायम करना चाहते थे और मकसद था सरकारी ठेकेदारी में कब्जा जमाना और इलाके का माफिया डॉन बनना। बलंवत सिंह ठाकुर समुदाय के दंबग माने जाते थे और इसलिए उन्हें उस समय एक और ठाकुर वीर प्रताप शाही का पूरा सहयोग मिल रहा था। वहीं हरिशंकर तिवारी ब्राह्मण जाति के थे तो जाति को लेकर दोनों गुट हमेशा आमने-सामने होते थे। बलवंत सिंह के गैंग के साथ हरिशंकर तिवारी गैंग की भिड़ंत की खबरे अक्सर गोरखपुर में सुनाईं देती।

शुरू किया जनता दरबार
इन दोनों गुटों का मकसद होता था सरकारी ठेके हथियाना। दरअसल सरकारी ठेके दबंगई के साथ-साथ पैसे कमाने का बड़ा जरिया होता था। रेलवे के ठेके, शराब के ठेके, भू माफिया जैसे कई काले कारोबार में हरिशंकर तिवारी का दबदबा बढ़ने लगा था। उनपर हत्या, हत्या की साजिश रचने, किडनैपिंग, रंगदारी वसूलने जैसे मामलों में 26 से ज्यादा केस भी दर्ज हो चुके थे। हालांकि उन्हें कभी किसी मामले में दोषी नहीं पाया गया। एक तरफ माफिया में उनकी पावर बढ़ती जा रही थी वहीं दूसरी तरफ धीरे-धीरे हरिशंकर तिवारी ने लोगों के बीच भी अपनी पैठ बनाना शुरू कर दिया था। माफिया के कारोबार से वो पैसा कमा रहे थे, लेकिन जनता की मदद के लिए भी वो हमेशा आगे रहते। उनकी परेशानियों को सुनना, आर्थिक मदद करना, जनता दरबार लगाने जैसी चीज़ें भी हरिशंकर तिवारी से जुड़ी रहीं और इसी का फायदा उन्हें राजनीति में मिला।

गोरखपुर में खासा दबदबा
हरिशंकर तिवारी की पॉप्यूलैरिटी का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि चिल्लूपार सीट से वो 22 साल तक लगातार विधायक चुने गए। हरिशंकर प्रसाद की एक खूबी ये भी रही कि राजनीति के हर दल के साथ उनके रिश्ते करीबी रहे। सत्ता चाहे जिसकी भी रही, हरिशंकर तिवारी हमेशा मंत्री बनते रहे। बीजेपी का दौर हो या फिर समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी, हर बार मंत्रालय लेने में हरिशंकर कामयाब हो ही जाते। 2007 तक हरिशंकर तिवारी का राजनीतिक जीवन ऊंचाइयों को छूता रहा लेकिन उसके बाद पहली बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 2007 के बाद 2012 में भी हरिशंकर चुनाव हार गए। हालांकि 2017 में उन्होंने बीएसपी सीट से अपने बेटे विनय शंकर तिवारी को टिकट दिलवाई और उन्होंने जीत भी दर्ज की।