जोशीमठ से लोगों को हटा देना चाहिए; उन्हें मुआवजा देकर उनका पुनर्वास कर दिया जाना चाहिए; नया जोशीमठ बना देना चाहिए; जोशीमठ आने वाले पर्यटकों और वाहनों की संख्या सीमित कर देनी चाहिए– लोग इसी किस्म के ‘समाधान’ सुझा रहे हैं। फूलों की घाटी, बदरीनाथ-हेमकुंड और स्कीइंग रिसॉर्ट ओली का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले जोशीमठ में रहने वाले लोग चिंतित-आशंकित-भ्रमित हैं। लेकिन अधिकतर लोगों के लिए इस जगह को बिल्कुल छोड़ देना विकल्प है ही नहीं क्योंकि उनकी रोजी-रोटी मुख्यतः यहां आने वाले पर्यटकों पर ही निर्भर है। यहां के लोग इस बात से बिल्कुल मुतमईन हैं कि एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की वजह से उनका यह हाल हुआ है। जोशीमठ में ऐसे पोस्टर पटे पड़े हैं जिनमें लिखा हैः ‘एनटीपीसी, वापस जाओ।’ लोग गुस्से में कहते भी हैं कि हम क्यों जाएं, एनटीपीसी को वापस जाना चाहिए। सिंहधार के काफलहोम स्टे के शिवराम सिंह पहले जिंदादिल व्यक्ति के तौर पर मिलते थे। इस बार उदास और अंदर ही अंदर घुट रहे लगते हैं। वह कहते हैं, ‘जिंदगी भर की मेहनत खत्म हो गई।’ वह कई बार पूछ चुके हैं, ‘क्या बच जाएगा जोशीमठ?’अब जोशीमठ वालों को बचाने की बात होनी चाहिएऐसे में भी, उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार सब कुछ नकारने की मुद्रा में ही लगती है। दिसंबर में वह कह रही थीः ‘300 मीटर’ तक क्षति पहुंची है, बाद में कहाः ‘30 प्रतिशत इलाका प्रभावित है’; जनवरी में उसने ‘करीब एक हजार घरों को असुरक्षित’ बताया। इन सबके बाद, जनवरी के अंत आते-आते यह तक कह डाला कि जोशीमठ और आसपास आंदोलन कर रहे लोग ‘दरअसल माओवादी और चीन-समर्थक’ हैं। बीच में हर ‘असुरक्षित’ घर के लिए डेढ़ लाख रुपये मुआवजा देने की बात भी की गई लेकिन अधिकारी फिर गायब हैं और उन्हें लगता है कि इस शहर या हाईवे को कोई खास खतरा नहीं है।लेकिन भूवैज्ञानिक डॉ. एस.पी. सती साफ कहते हैं कि अब जोशीमठ को बचाने की बात करना फिजूल है, अब तो जोशीमठ वालों को बचाने की बात होनी चाहिए। डॉ. सती स्वतंत्र भूवैज्ञानिकों की उस टीम में शामिल थे जिसने कुछ महीने पहले जोशीमठ के लोगों के आग्रह पर धंसाव के कारणों की जांच की थी और अन्य बातों के अलावा इस धंसाव के लिए एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की टनल को भी जिम्मेदार ठहराया था।पुराने भूस्खलन के मलबे पर बसा है जोशीमठ, जमीन खोखलीउनका कहना है कि जोशीमठ पुराने भूस्खलन के मलबे पर बसा हुआ है और उसकी जमीन खोखली है। उन्होंने उत्तराखंड में कई दूसरे हिस्सों- गोपेश्वर, पौड़ी, श्रीनगर, गुप्तकाशी, ऊखीमठ, धारचूला, नैनीताल, मुनस्यारी सहित कई जगहों के नाम लिए जहां भविष्य में इस तरह से धंसाव की समस्या पैदा हो सकती है। उनका कहना है कि ये वे नगर-कस्बे हैं जहां ड्रेनेज की कोई व्यवस्था नहीं है और प्राकृतिक ड्रेनेज सिस्टम का हमने शहरीकरण के चक्कर में गला घोंट दिया है।मारवाड़ी में रिसते पानी के बहाव का निरीक्षण करते हुए मैं विष्णु प्रयाग में अलकनंदा पुल के पास तक गया। वहां चाय के एक खोमचे पर पंवार जी मिले। वह चाईं गांव के हैं। यह गांव जोशीमठ के ठीक सामने अलकनंदा के दूसरी तरफ है जो कई वर्ष पहले जोशीमठ जैसी आपदा का शिकार हो चुका है। इस गांव के भूगर्भ में जेपी पावर वेंचर कंपनी की विष्णुगाड परियोजना का पावर हाउस और अन्य निर्माण हैं। गांव के पीछे की पहाड़ी से इस परियोजना की टनल है। पहले इस गांव की पहचान जोशीमठ क्षेत्र में दूध और फल उत्पादक गांव के रूप में थी लेकिन इस परियोजना के कारण करीब 22 वर्ष पहले गांव ठीक वैसे ही धंस गया था जैसे आज जोशीमठ धंस रहा है। मैंने मुआवजे के बारे में पूछा, तो अपने खोमचे पर लगी टिन की चद्दरें दिखाते हुए वह कहते हैं, ऐसी नौ चद्दरें मिली थीं मुआवजे के नाम पर।चाईं गांव आज भी धंस रहा, मारवाड़ी भी असुरक्षितचाईं गांव आज भी धंस रहा है। पंवार कहते हैं, 60-65 परिवारों के गांव में केवल 18 परिवारों को मारवाड़ी में घर बनाने के लिए जमीन मिली थी। उन्होंने घर बनाए लेकिन खेती-बाड़ी के लिए गांव ही आते हैं। अब तो मारवाड़ी भी असुरक्षित है। जोशीमठ धंसेगा तो नीचे मारवाड़ी में ही आएगा। वह कहते हैं, उस समय परियोजना की टनल से निकलने वाले बारूद वाले मलबे से पहले उनके पशु मरे, फिर पेड़-पौधे नष्ट हो गए। अब खेती कुछ नहीं होती। गांव के लोग भी उन्हीं असुरक्षित घरों में हैं।जोशीमठ के सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में मनोहरबाग नाम की घनी बस्ती शामिल है। औली वाली रोड से नीचे उतरते ही पहला घर सूरज कपरवान का है। उनके घर से लेकर खेतों से होती हुई दूर तक चौड़ी दरार नजर आ रही है। घर का बड़ा हिस्सा दरक गया है। खेतों में दरार तीन फुट तक चौड़ी है। घर से कुछ ही दूरी पर औली रोपवे का पहला टावर है। टावर के ठीक नीचे भी दरार है। टावर भी टेढ़ा हो गया है। सूरज बताते हैं कि ट्रॉली संचालन बंद कर दिया गया है। ट्रॉली टावर के कुछ मीटर नीचे एक घर पूरी तरह दरक गया है। कमरों का फर्श कई टुकड़ों में टूटा हुआ है। फर्श कहीं ऊपर उठ गया है और कहीं नीचे धंस गया है। सभी कमरों का सामान निकालकर एक जगह जमा कर दिया गया है।जोशीमठ आकर रैणी न जाना अधूरा-साचंद्र बल्लभ पांडेय और उनके भाई लगभग बदहवास हैं। बाहर नौकरी कर रहे अपने दोनों बेटों को बुला लिया है। घर में एक भी ऐसा कमरा नहीं जिसमें रह सकें। रहने लायक कोई जगह भी अब तक प्रशासन ने नहीं दी है। चंद्र बल्लभ पांडे बताते हैं, उनका गांव जोशीमठ से कुछ दूर पातालगंगा से लगता गणाईं गांव है। गणाईं गांव दो तरफ से दरक रहा है और कई सालों से असुरक्षित गांव घोषित है। गांव के लोग पुनर्वास की बाट जोहते रहे लेकिन कुछ नहीं हुआ। अपनी सुरक्षा खुद करने के लिए ज्यादातर परिवार जोशीमठ या अन्य जगहों पर शिफ्ट हो गए हैं। चंद्र बल्लभ पांडे आगे कहते हैं, सुरक्षित रहने के लिए यहां आए थे, यहां भी वही हालत हो गई। पास बैठी चंद्र बल्लभ पांडे की भाभी लगातार आंसू बहा रही हैं।जोशीमठ आकर रैणी न जाना अधूरा-सा लगता है। धौली और ऋषिगंगा के संगम स्थल से कुछ दूरी प्रकृति के संरक्षण के लिए समर्पित हमारी वैचारिक मातृ महिला गौरा देवी का गांव। करीब 50 साल पहले उन्होंने ही चिपको आंदोलन का नेतृत्व किया था। फरवरी और फिर जून, 2021 की आपदा से पूरी तरह से असुरक्षित हो चुके रैणी गांव को इसके लगभग 5 किलोमीटर ऊपर भविष्य बदरी के रास्ते में पड़ने वाले सुभाईं गांव में बसाने की योजना बनाई गई थी।जिस सुभाईं में बसाना था, वहां भी आई दरारेंजोशीमठ से आगे बढ़कर तपोवन पहुंचे तो थपलियाल जी के ढाबे पर दाल-भात खाने के दौरान पता चला कि करीब 10 किलोमीटर दूर सुभाईं गांव में भी कई घरों पर दरारें आ गई हैं। सड़क के ठीक ऊपर रैणी की तरफ बढ़ने पर सफेद रंग का एक द्वार है। यहां गौरा देवी और उनकी सहयोगी रही उन महिलाओं के नाम अंकित हैं जिन्होंने 26 मार्च, 1974 को पेड़ों से चिपककर जंगलों को कटने से बचाया था। कुछ मीटर दूर ही गौरा देवी की प्रतिमा लगी थी जो जून, 2021 में सड़क टूट जाने के बाद हटा दी गई।गांव सुनसान है। कई बार आवाज लगाने पर बगीचे में काम कर रही बुजुर्ग महिला सौंणी देवी ने बताया कि ज्यादातर लोग कहीं पूजा में गए हैं। ग्राम प्रधान भवान सिंह की धर्मपत्नी करिश्मा ने बातचीत में बताया कि पुनर्वास के मामले में जो स्थिति जून, 2021 में थी, वही आज भी है। वह कहती हैं, सुभाईं में बसाने की बात सुन रहे थे लेकिन अब तो सुभाईं में भी दरारें आ रही हैं।हम वापस तपोवन लौटकर नई बनी कच्ची सड़क पर करीब 10 किलोमीटर चढ़ते हुए तेजी से सुभाईं पहुंचे। यह गांव करीब 3,200 मीटर की ऊंचाई पर बसा है। ऊंचाई वाले अन्य भोटिया जनजाति बहुल गांवों की तरह सुभाईं के लोग सर्दियों में निचले क्षेत्रों में स्थित गांवों में नहीं उतरते। यहां के लोगों का निचले क्षेत्रों में कोई गांव नहीं है। हमने जैसे ही दरारों के बारे में बात की, सुरेन्द्र सिंह रावत, प्रेम सिंह रावत, रूप सिंह फरस्वाण, गिरीश सिंह राणा, भंगुली देवी आदि में अपना-अपना घर दिखाने की होड़ मच गई।सेलंग गांव एनटीपीसी परियोजना से सबसे ज्यादा प्रभावितपहले उन्हें लगा कि हम किसी सरकारी महकमे से हैं। जब हमने बताया कि हम मीडिया से हैं, तब भी अपने घरों की दरारें दिखाने के लिए ये लोग हमें अपने-अपने घर ले जाते रहे। यहां कुछ घर तो लगभग ढहने की स्थिति में हैं। इनमें कुछ पुराने घर हैं, तो कुछ एक-दो साल पहले बने हुए। सुभाईं के नीचे तो कोई टनल भी नहीं है, फिर यहां दरारें क्यों आ रही होंगी? प्रेम सिंह रावत बताते हैं कि फरवरी, 2021 की आपदा के बाद से ही गांव में इस तरह की दरारें देखने को मिल रही थीं जो हाल के दिनों में कुछ ज्यादा बढ़ गई हैं। कुछ लोग गांव के ठीक नीचे से गुजर रहे जोशीमठ-मलारी रोड के चौड़ीकरण को भी इसकी वजह मान रहे हैं।जोशीमठ से लौटते हुए हम सेलंग गांव भी गए। एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना से सबसे ज्यादा प्रभावित है यह गांव। गांव के नीरज सिंह बिष्ट, भवानी देवी, लक्ष्मी देवी और कुछ अन्य लोग बताते हैं कि तपोवन-विष्णुगाड परियोजना के लगभग सभी निर्माण गांव के नीचे हैं। गांव की जमीन पर सिर्फ एक निर्माण है जिसे सर्ज शॉफ्ट कहा जाता है। तपोवन में बन रहे डैम से पानी जोशीमठ के नीचे से गुजर रही टनल के जरिये इस सर्ज शॉफ्ट तक पहुंचेगा और यहां से फोर्स के साथ जमीन के नीचे बने पावर हाउस की 130-130 मेगावाट की चार टर्बाइन तक भेजा जाएगा। जमीन के नीचे संदूकबांध, डिसिलिंटग चैंबर, हेडरेस टनल, टॉलरेंस टनल सहित दर्जनों निर्माण हैं।भवानी देवी बताती हैं कि, 2018 में कुछ गांव की जमीन एक्वायर हुई थी। जमीन का निर्धारित से चार गुना ज्यादा मुआवजा देकर गांव के विकास की बात कही गई। कुछ लोगों ने जमीन देने से इंकार किया तो जबरन उनके खातों में पैसे ट्रांसफर किए गए। लेकिन काम शुरू होते ही गांव की जमीन के नीचे धमाके होने लगे और घर हिलने लगे। मुआवजे में मिली रकम से गांव वालों ने जो नए-नए मकान बनाए थे, उनमें भी दरारें आने लगीं। गांव के परंपरागत पानी के स्रोत सूखने लगे। लेकिन अब हमें कोई नहीं पूछता।जोशीमठ अचानक असुरक्षित नहीं हुआ, चेतावनियों को किया गया नजरअंदाजसोशल ऐक्टिविस्ट अतुल सती की बातों की गहराई यहां समझ में आती है। उनका कहना है कि जब कोई दुर्घटना होती है तो शरीर के कई हिस्से जख्मी होते हैं लेकिन मौत अक्सर हेड इंजरी से होती है। वह तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की टनल को जोशीमठ को इस हालात में पहुंचाने वाली हेड इंजरी बताते हैं।वैसे भी, जोशीमठ अचानक असुरक्षित नहीं हुआ है। जोशीमठ और सेलंग-जैसे गांवों को इस हालत में पहुंचाने का मुख्य कारण चेतावनियों को नजरअंदाज करना है। इस भूभाग को लेकर पहली चेतावनी तो आज से 135 वर्ष पहले ही आ चुकी थी, 1886 में जब एडविन एटकिंसन ने ‘द हिमालयन गजेटियर’ में संकेत दिया था कि जोशीमठ भूस्खलन के मलबे पर बसा हुआ है। दूसरी चेतावनी 1976 में आई जब तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर सतीश चंद्र मिश्रा की अगुवाई में बनाई गई 22 सदस्यीय कमेटी की रिपोर्ट में भी यह बात साफ तौर पर कही गई कि जोशीमठ पुराने भूस्खलन के मलबे पर है। इसकी वहन क्षमता कम है। मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट में जोशीमठ में बड़े निर्माण न करने, यहां तक कि यहां के ढालों पर खेती न करने की भी सलाह दी गई थी। लेकिन इन चेतावनियों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। आसपास के गांवों के लोगों का जोशीमठ में आकर बसने का सिलसिला तो जारी रहा ही, सेना ने यहां एक बड़े भूभाग पर भारी भरकम निर्माण किए, जोशीमठ और आसपास के क्षेत्रों में कई बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं भी बनाई गईं। इसलिए यह सब अस्वाभाविक नहीं है।