सयोनी घोष, सृजन भट्टाचार्य या अनिर्बान गांगुली? जानें जादवपुर सीट का समीकरण

जादपुुर: ‘पश्चिम बंगाल की पॉलिटिक्स को समझना थोड़ा मुश्किल है। हर किसी को जल्दी से समझ नहीं आता। यहां लोग अपने मन की बात कभी नहीं बताते।’ जादवपुर लोकसभा के एक इलाके में भुनी मछली के स्टॉल के बाहर खड़े धनंजय रॉय ने मेरी ओर देखते हुए कहा। बीते सालों में बंगाल की राजनीति में जिस तरह टीएमसी ने लेफ्ट को सत्ता में वापसी से रोका है और बीजेपी ने अपने लिए जगह बनाई है। उसे देखते हुए कहना गलत नहीं कि बंगाल की राजनीति और यहां के वोटर हमेशा चौंकाते रहे है। इस बार जादवपुर सीट पर बीजेपी के डॉ. अनिर्बान गांगुली की उम्मीदवारी भी ऐसे ही चौंकाती है। ये सीट अप्रत्याशित इतिहास का हमेशा से गवाह रही है। 1984 में ममता बनर्जी ने उस वक्त के सीपीएम के दिग्गज सोमनाथ चटर्जी को हराकर चुनावी राजनीति में अपना दखल महसूस करवाया था। लेकिन उसके बाद जादवपुर यूनिवर्सिटी की ही प्रफेसर मालिनी भट्टाचार्य ने अगले चुनाव में उन्हें यहां से बाहर का रास्ता दिखाया था और वो दक्षिण कोलकाता शिफ्ट हो गई थी।पिछली बार इस सीट पर मिमी चक्रवर्ती तीन लाख से ज्यादा वोटों से जीती थी। इस बार टीएमसी के लिए मामला इतना आसान नहीं। सीपीएम के सृजन भट्टाचार्य और बीजेपी के बीच ये सीट त्रिकोणीय मुकाबले की ओर संकेत कर रही है।’लोगों के पास विकल्प नहीं’हालांकि पिछली बार मुकाबले में दूसरे नंबर पर रही बीजेपी पूरा जोर लगा रही है। धनंजय रॉय कहते हैं कि चुनाव बंगाल में भले ही हो रहे हैं लेकिन वोट तो दिल्ली के लिए ही डाले जा रहे हैं। वहां I.N.D.I.A. गठबंधन की कोई हवा नहीं है। लोगों के पास विकल्प नहीं, इसलिए ये तय है कि बीजेपी के वोटों का आंकड़ा इस बार पहले से बेहतर होगा। वो आगे कहते हैं कि ये सही है कि ममता बनर्जी ने हमेशा जमीनी राजनीति की है, लेकिन वो जिन लोगों से घिरी हुई हैं वो भ्रष्ट हैं। इसका असर प्रशासन पर दिखता है।सयोनी बनाम सृजनवो आगे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का जिक्र करते हुए कहते हैं कि बिना सबूत किसी को इतने दिनों तक अंदर नहीं रखा जा सकता, आरोप तो राहुल और सोनिया गांधी पर भी हैं। उन पर तो किसी ने हाथ नहीं डाला। विजॉय कहते हैं कि दिक्कत ये है बीजेपी ने इस सीट से किसी हैवीवेट को नहीं उतारा है। कोलकाता के इस हिस्से के लोग उम्मीदवारों का चेहरा देखकर वोट करते हैं। लेकिन 80 फीसदी लोग इस सीट से बीजेपी के कैंडिडेट का नाम ही नहीं जानते। वहीं सीपीएम सृजन भी युवा हैं लेकिन उनकी राजनीति में खास पहचान नहीं। ऐसे में सियोनी घोष के पास टीएमसी का टैग है और ये फिलहाल उनके पक्ष में जाता है। एसएसकेएम अस्पताल में बतौर डॉक्टर काम करने वाली देवमाला दत्त कहती हैं कि मेरा तो बहुत ही छोटा सा सवाल है, ‘राज्य में बीजेपी का चेहरा कौन है? ‘वो कहती हैं कि टक्कर सायोनी और सृजन के बीच है। लोग तृणमूल की इस युवा को पहचानते हैं, वो ये भी जानते हैं कि वो केंद्रीय एजेंसियों के नशाने पर हैं।राजनेताओं से क्यों निराश हैं युवा?देश की टॉप-10 यूनिवर्सिटी में से एक जादवपुर यूनिवर्सिटी सिर्फ अपनी अकैडमी क्षमता को लेकर ही बल्कि अपने अलग राजनीतिक मिजाज के लिए भी जानी जाती है। इस बात की तस्दीक यूनिवर्सिटी में घुसते ही हो जाती है। 68 एकड़ में फैले कैंपस में जगह-जगह दीवारों गांव छोड़ब नाहि, Smash patriarchy ( पितृसत्ता को खत्म करो) जैसे नारे यहां के राजनीतिक रुझान जाहिर कर देते हैं। यहां का आदर्श वाक्य है: जानना ही बढ़ना है। वामपंथियों के असर वाले इस कैंपस का एक विरोध प्रदर्शन सिटी ऑफ जय को ठप करने के लिए काफी है। कैंपस में युवाओं से बात करने पर उनमें मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को लेकर एक निराशाजनक भाव दिखता है। नाम ना बताने की शर्त पर एक छात्र ने कहा कि बीजेपी और टीएमसी दोनों के ही यहां दखल की वजह से यहां बहुत ज्यादा सांस्कृतिक बदलाव हो रहा है। वो कहते हैं ‘ममता ने बीजेपी के साथ समझौता कर लिया है।’विपक्ष को CBI, ED का डर दिखाया जा रहा’यूनिवर्सिटी परिसर की कैंटीन के बाहर एमटेक की पढ़ाई कर रहे पांच छात्रों का एक गुट बैठा था। राज्य के अलग-अलग जिलों से आए ये चुनाव के मद्देनजर देश के राजनीतिक हालात पर नजर रखते हैं। इनमें से 27 साल का सूरज कहता है कि अभी विपक्ष को देखिए उसे सीबीआई, ईडी का डर दिखाकर डरा रहे हैं। वहीं, आकाश मंडल कहते हैं कि जहां तक चुनाव की बात है तो वो भी दिखावे का है, ठीक है चुनाव हो रहा है लेकिन, बीजेपी को तो अपना रिजल्ट पहले से ही मालूम है। वो कहते हैं कि सुनने में आ रहा है कि जीतने के बाद बीजेपी संविधान ही बदल देगी। छात्र इलेक्टोरल बॉण्ड और मीडिया की भूमिका को लेकर भी चिंता जताते दिखे। मंडल आगे कहते हैं कि बेरोजगारी एक बहुत बड़ा मुद्दा है।ग्रामीण वोटर की खामोशी क्या कहती है?रेलवे स्टेशन पर लोकल के जरिए दूर दराज से काम करने के लिए कोलकाता आने वाले लोगों में चुनाव और वोट के मुद्दे पर असहज करने वाली खामोशी है। लोग राजनीति की बातों से परहेज करते दिखे। जबकि कुछ राजनीति से इतने बेजार हो गए हैं कि कोई जीते या हारे कोई फर्क नहीं पड़ता। रतन कहते हैं कि राजनीति में रूचि बची नहीं। हम तो रोज कमाने और खाने वाले लोग हैं। चाहते हैं कि बच्चे पढ़े लिखें और आगे बढ़े। इससे पहले लेफ्ट की सरकार ही बेहतर थी। पढ़ाई तो होती थी। इसके बाद उन्होंने महंगाई पर बात की। कहा, घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया है। वहीं, अकबर कहते हैं- बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा होगा। उसी की हवा चल रही है। अकबर की स्टेशन से लगी एक छोटी सी दुकान है। ये पूछने पर कि लोग यहां राजनीति पर बात करने से इतना परहेज क्यों करते हैं- वो कहते हैं कि लोग मन में खीज गए है।