गोवा में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (पीएचसी) में डायलिसिस, स्तन कैंसर की जांच, वहां भर्ती रोगी की सेवा, दिल का दौरा पड़ने पर होने वाली आपात जरूरतों को पूरा करने और ट्रॉमा सेंटर- सभी सुविधाएं एक ही छत के नीचे मिल जाती हैं। कर्नाटक जाने वाले हाईवे से नजदीक के दक्षिणी गोवा के 15 बेड वाले पिलियम धारबंडोडा पीएचसी में 60 किलोमीटर इलाके के निवासियों और अनिवासियों को कमोबेश ये सभी सुविधाएं मिलती हैं।किसी पीएचसी में ट्रॉमा केयर, डायलिसिस या स्तन कैंसर जांच सुविधा मिलना अपवाद ही है। लेकिन गोवा का यह पीएचसी इस बात का प्रमाण है कि पीएचसी को लोगों की मेडिकल जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार करना संभव है। राजस्थान विधानसभा ने पिछले महीने जिस स्वास्थ्य के अधिकार कानून को मंजूरी दी है, वह राज्य के निवासियों को इस तरह की सुविधाएं निःशुल्क देने की जवाबदेही सरकार पर डालती है। कानून जब लागू हो जाएगा, तो अनुमान है कि इस पर 14.5 करोड़ का वार्षिक खर्च होगा।आम लोगों को उनके अधिकार हासिल करने में मदद करने वाले संगठन- प्रयास ने रेखांकित किया कि कानून की धारा 4 ने पर्याप्त मेडिकल सेवाओं को उपलब्ध कराने के उत्तरदायित्व का भार सरकार की ओर कर दिया है। सरकार राशि उपलब्ध कराने, संस्थान बनाने और शिकायत निवारण व्यवस्थाएं बनाने के लिए ‘वचनबद्ध’ है। उसे राज्य स्वास्थ्य प्राधिकार और जिला स्वास्थ्य प्राधिकार बनाने के लिए कदम उठाने होंगे। शिकायतों के निबटारे के अलावा अधिकारियों को हेल्थकेयर सेवाएं, सेवाओं की गुणवत्ता की जांच-परख और नियमित क्लीनिकल, सामाजिक और आर्थिक जांच की व्यवस्थाएं करनी होंगी।कानून पहले जिस रूप में तैयार किया गया था, उसमें राजस्थान आने वाले लोगों, अनिवासियों और प्रवासी मजदूरों को भी इन सबमें शामिल किया गया था। अंतिम तौर पर जिसे स्वीकृति दी गई है, उसमें ये बातें हटा दी गई लगती हैं। दबाव में कई अन्य प्रावधान भी हटाए गए हैं। इस कानून के खिलाफ राजस्थान के डॉक्टरों और निजी अस्पतालों ने न सिर्फ दो हफ्ता लंबा आंदोलन किया बल्कि सरकार पर दबाव डालने के लिए जयपुर में बड़े जुलूस भी निकाले। अंततः इस कानून के दायरे से उन अस्पतालों और नर्सिंग होम को बाहर कर दिया गया है जो ‘निजी जमीन’ पर बने हैं। डॉक्टरों के एक वर्ग ने डॉक्टरों द्वारा इसे अपने ही पाले में गोल करने-जैसा बताया है क्योंकि राज्य सरकार अब इन मेडिकल सेंटरों द्वारा आपातकालीन स्थितियों में रोगियों पर किए जाने वाले खर्च की प्रतिपूर्ति करने के लिए उत्तरदायी नहीं होगी। लेकिन वे रोगियों को सेवाएं देने के लिए अब भी बाध्य हैं।वैसे, सरकार ने 50 से कम बेड वाले छोटे अस्पतालों को पहले ही इससे मुक्त रखा है। एसोसिएशन ऑफ हेल्थ-केयर प्रोवाइडर्स ऑफ इंडिया का दावा है कि देश में 65 प्रतिशत निजी अस्पतालों में 11 से 50 बेड हैं और जहां 10 से कम बेड हैं, उनकी संख्या 14 प्रतिशत है। इस तरह, करीब 80 प्रतिशत निजी अस्पताल इस दायरे से बाहर हैं, तो आपातकालीन हेल्थ केयर उपलब्ध कराने का प्राथमिक भार सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों, निजी मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों, सरकार से अनुदान प्राप्त अस्पतालों और ट्रस्टों के अस्पतालों को उठाना होगा।वैसे, किसी भी हाल में चिकित्सा नैतिकता के तहत सभी डॉक्टरों और अस्पतालों को दरवाजा खटखटाने वाले सभी रोगियों को आपातकालीन मेडिकेयर देना ही है। राजस्थान विधानसभा द्वारा मार्च में पारित स्वास्थ्य के अधिकार कानून ने इसे कानूनी बाध्यता बना दिया है। देश में इस तरह का यह पहला कानून है जिसमें कानून सरकार को वह खर्च उठाने के लिए बाध्य बनाता है अगर रोगी उसका भुगतान नहीं कर पाता है।यह आगे की सोच रखने वाला और पथप्रदर्शक कानून ‘चिरंजीवी योजना’ के संदर्भ में आया है। इस योजना के तहत प्रति परिवार को 25 लाख मेडिकल बीमा और 10 लाख दुर्घटना बीमा का प्रावधान है। यह केन्द्र सरकार की आयुष्मान भारत योजना के अलावा है जो हर परिवार को पांच लाख रुपये तक के बीमा का प्रस्ताव करती है।आपातकालीन केयर के अधिकार के अतिरिक्त यह कानून हर व्यक्ति को सभी निजी अस्पतालों में निःशुल्क हेल्थकेयर पाने, बीमारी तथा अन्य स्थितियों के आधार पर भेदभाव रोकने, अगर कोई सेकेंड ओपिनियन चाहता है, तो उसे अपना मेडिकल रिकॉर्ड पाने, अस्पतालों से अलग-अलग खर्च बताने वाले (आइटमाइज्ड) बिल पाने और रोगियों के लिए शिकायत निवारण व्यवस्था बनाने का अधिकार देता है।अभी जो हाल है, उसमें 75 फीसदी हेल्थकेयर खर्च परिवारों की ‘सीमा से बाहर’ खर्च से आते हैं। अनुमान है कि हर साल 6.3 करोड़ भारतीय इस किस्म के खर्चों की वजह से गरीबी की तरफ ढकेल दिए जाते हैं। इस बात को 2017 में सामने लाई गई स्वास्थ्य योजना में भी स्वीकार किया गया था। हमारा सरकारी स्वास्थ्य खर्च जीडीपी का 1.1 प्रतिशत है जो दुनिया में सबसे कम में से एक है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे 5 फीसदी करने की सिफारिश की है।निजी अस्पतालों पर बहुत अधिक निर्भरता और हेल्थकेयर को लेकर सेवा नहीं बल्कि एक उद्योग के तौर पर उनके रुख की वजह से राजस्थान में डॉक्टरों और हेल्थ वर्करों का दो सप्ताह लंबा आंदोलन चला। इस विचार कि सिर्फ वे रोगी ही हेल्थकेयर तक पहुंच रख सकते हैं जो भुगतान करने लायक हैं, को स्वास्थ्य के अधिकार कानून ने चुनौती दी है। वस्तुतः, यह सरकारी स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने और सेवाओं के लिए सरकार को जवाबदेह बनाने की बात करता है।केन्द्र सरकार ने स्वास्थ्य के लिए 2022-23 में अपना खर्च 2.1 प्रतिशत रखने का दावा किया है। केन्द्रीय स्वास्थ्य बजट 2015 से लगभग 1.5 प्रतिशत के आसपास रहा है और कोविड महामारी के बाद इसमें थोड़ी-बहुत बढ़ोतरी की गई है। वास्तव में कितना खर्च होता है, यह एक अलग सवाल है और इसका जवाब मिलना आसान नहीं है। आम तौर पर माना जाता है कि निजी अस्पताल केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत अदायगी (रीइम्बर्समेन्ट) के जरिये सरकारी खर्च के बूते फलते-फूलते हैं। आम लोगों के बीच बातचीत से जो सबूत मिलते हैं, वे बताते हैं कि मेडिकल बीमा कंपनियां निजी अस्पतालों को हर साल करीब 65 हजार करोड़ रुपये की अदायगी करती हैं। इस किस्म की अदायगी का बड़ा हिस्सा ‘अज्ञात कारणों की वजह से होने वाले बुखार’ के मद में किया जाता है। इसके तहत अस्पताल रोगियों की तरह-तरह की जांच करते-कराते हैं जिस बारे में बीमाधारक कोई सवाल नहीं उठा पाता।राजस्थान के गैरलाभकारी बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज के सहसंस्थापक डॉ. पवित्र मोहन नीति आयोग की इस सिफारिश पर सवाल उठाते हैं कि जिला अस्पतालों का निजीकरण कर देना चाहिए और यह मान लेना चाहिए कि अधिकांश भारतीय निजी सुविधाओं से स्वास्थ्य सुविधाएं लेने के इच्छुक हैं। उन्होंने नेशनल हेरल्ड के लिए लिखा कि यह तर्क बेमानी है क्योंकि ग्रामीण भारत के अधिकांश लोग अधिकतर गंभीर स्वास्थ्य जरूरतों के लिए सरकारी सुविधाओं पर निर्भर हैं। उन्होंने बताया कि राजस्थान में 98 प्रतिशत बाल वैक्सिनेशन, 70 प्रतिशत गर्भनिरोध उपाय और अस्पतालों में होने वाले जन्म का 79 प्रतिशत सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में होता है।