Opinion: राहुल गांधी-तेजस्वी यादव एक बराबर, एक के पास नहीं ‘ब्लूप्रिंट’ तो दूसरे को दिख रहा ‘कुर्सी’ का सपना

ओमप्रकाश अश्क, पटनाः सियासत को करियर बना चुके देश के दो नौजवान अभी यात्राओं पर निकले हैं। दोनों फिलहाल बेरोजगार हैं। फुर्सत है तो घूम लेने में क्या जाता। जनता ने कम से कम इस लायक तो बना ही दिया है कि मुफ्त भ्रमण कर सकें। धरती, आकाश सब मुफ्त यात्राओं के लिए उपलब्ध हैं। एक की किस्मत ऐसी कि दो बार जुगाड़ भिड़ा कर ‘नौकरी’ तो पा ली, पर ज्यादा दिन तक वह टिक नहीं पाई। दूसरे तो दस साल से नौकरी के इंतजार में ही बैठे हैं। जनता ने अभी तक चांस ही नहीं दिया। बाईचांस की आस में इस बार उन्होंने अपने दल को ही दांव पर लगा दिया है। करियर की जमा पूंजी लगा कर एक संगठन खड़ा कर लिया है। जितनी पूंजी उसमें लगाई है, उसकी भरपाई का अंकगणित अभी ही गड़बड़ दिखता है। संसद की राह आसान करने वाले सूबे- यूपी, बिहार और बंगाल में दूसरे की दया पर वे रोजगार की उम्मीद पाले हुए हैं। हम बात कर रहे हैं और की। राहुल 10 साल से देश का पीएम बनने के सपना पाले हुए हैं तो तेजस्वी बिहार का सीएम बनने का सपना देख रहे हैं।पहले अपना आकलन कर लें तेजस्वी यादव तेजस्वी यादव कंडीशनल बेरोजगार हैं। राजनीति की पाठशाला में दाखिला लिए दस साल भी पूरे नहीं हुए, पर खुद को प्रवीण-पारंगत साबित करने को उतावले हैं। खलिहरों को साथ लेकर महागठबंधन बना कर बाप ने दे दिया तो इससे वे राजनीति के दांव-पेंच का पंडित ही खुद को समझने लगे हैं। राजनीति की लंगड़ी मार कला से उनका दो बार पाला पड़ चुका है, फिर भी दांव-पेंच की कला के उस्ताद अपने को समझ रहे हैं। अभी यात्रा में जहां भी जा रहे हैं, लोगों से सीएम बना देने का आश्वासन मांग रहे हैं। नौकरी का दावा तो इतने पुख्ता अंदाज में करते हैं कि लगता है, अब कोई बेरोजगार बिहार में बचेगा ही नहीं। उनके वेतन के पैसे कहां से आएंगे, इसका ब्लूप्रिंट वे नहीं बता रहे। नीतीश कुमार ने साल 2020 में पैसों के स्रोत पर अपने अंदाज में सवाल भी उठाया था। बिहार को बदलने का ब्लूप्रिंट अभी वे बताते तो लोग उसका दूसरों से तुलनात्मक आकलन कर भी पाते। उन्हें तो सीधे सीएम के लिए जनता के वोट मिल जाने के चांस दिखते हैं।तेजस्वी में संभावनाएं, पर हड़बड़ी खतरनाक तेजस्वी युवा हैं। ऊर्जावान भी लगते हैं। उनकी एक कमी जरूर खलती है। विरोधी इसके लिए उनकी खिल्ली भी उड़ाते हैं। वे कम पढ़े-लिखे हैं। कोई नौवीं पास कहता है तो कोई नौवीं फेल बताता है। उनकी मां तो इतनी भी नहीं पढ़ पाईं। फिर भी बिहार की मुख्यमंत्री बन गईं। यह लोकतंत्र की ताकत है। खूबसूरती भी कह सकते हैं। इस पर इतरा भी सकते हैं। पर, कभी किसी ने सोचा कि यह व्यवस्था जिस वक्त संविधान में की गई थी, उस वक्त साक्षरता की स्थिति क्या थी ? भारत में साक्षरता की दर 1947 में यानी विलायती शासन के अंत में 12 प्रतिशत थी। वर्ष 2011 में यह 74 प्रतिशत दर्ज की गई थी। अगली जनगणना साल 2021 में नहीं हो पाई। वैश्विक महामारी कोविड कारण बना। पर, यह पक्के तौर पर मानना चाहिए कि इसमें बढ़ोतरी जरूर हुई होगी। इसलिए कि शिक्षा के प्रति लोगों में जागरूकता आई है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों में बिहार की साक्षरता दर 63.82 प्रतिशत दर्ज की गई थी। साक्षरता के मामले में बिहार देश का सबसे कम साक्षर राज्य बन कर सामने आया था। तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद यादव ग्रेजुएट हैं। बेटियां भी सब पढ़ी-लिखी हैं। दुर्भाग्यवश उनके दोनों बेटे तेज प्रताप और तेजस्वी यादव ही नहीं पढ़ पाए। पर, जेहनी तौर पर तेजस्वी में किसी कुशल राजनीतिज्ञ की संभावनाएं साफ नजर आती हैं। अलबत्ता उन्हें इस बात का अफसोस जरूर होता होगा कि उन्होंने पढ़ाई की कोई डिग्री क्यों नहीं ली। वैसे भी देश के किसी सूबे का सीएम अब शायद ही तेजस्वी जितना कम पढ़ा-लिखा हो।राहुल के भरोसे ही तेजस्वी देख रहे हैं सपना तेजस्वी इन दिनों जनता का विश्वास पाने के लिए बिहार में जन विश्वास यात्रा पर निकले हैं। तीसरे महीने लोकसभा का चुनाव है। उनकी पार्टी आरजेडी उस विपक्षी गठबंधन का हिस्सा है, जिसके सिरमौर कांग्रेस के राहुल गांधी हैं। वर्ष 2014 से कांग्रेस उन्हें पीएम कैंडिडेट के दांव पर लगा रही है। पहली बार में ही उन्होंने कांग्रेस की दुर्गति करा दी। लोकसभा में 1984 में उनके पिता राजीव गांधी की बदौलत कांग्रेस को 401 सीटें आई थीं। यह रिकार्ड अब तक कोई नहीं तोड़ पाया। भाजपा को तो दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। चुनाव 542 सीटों के लिए हुआ था। राजीव गांधी के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में इतनी सीटों का रिकार्ड बनाने वाली कांग्रेस ने राहुल गांदी के नेतृत्व में लड़ कर नया रिकार्ड बना दिया। राहुल ने 2014 में कांग्रेस को 44 सीटें दिला कर न्यूनतम का नया रिकार्ड जरूर बना दिया। कांग्रेस के धैर्य की दाद देनी चाहिए। पार्टी ने 2019 में भी फिर राहुल पर ही दांव लगा दिया। इस बार राहुल की मेहनत रंग लाई, लेकिन पिछले मुकाबले महज आठ सीटें ही बढ़ीं। सीटों की संख्या 52 तक वे पहुंचा पाए। तीसरी बार उनके चेहरे को कांग्रेस ने फिर दांव पर लगा दिया है। राहुल और उनकी पार्टी कांग्रेस को आज भी यह भरोसा है कि जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी को लोगों ने सपोर्ट किया तो राहुल को भी करेंगे। वे ऐसा भरोसा करते वक्त यह भूल जाते हैं कि तब वादों और नारों पर वोट मिल जाते थे। सहानुभूति में लोग पिघल जाते थे। आजादी की लड़ाई लड़ने वाले संगठन का नाम भी कांग्रेस था, इसलिए कांग्रेस नाम का लाभ भी उन लोगों को मिला। राजीव गांधी की कई खूबियां थीं, लेकिन उन्होंने लोकसभा में सीटों का जो रिकॉर्ड बनाया, उसके पीछे उनकी मां इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति सबसे बड़ी वजह थी। ऐसा इसलिए कि वे बाद में पिछड़ गए।पांच लाख नौकरियों की उपलब्धि गिना रहे अब बात तेजस्वी यादव की। तेजस्वी महागठबंधन या नए नामकरण के बाद इंडी अलायंस की कामयाबी के लिए यात्रा नहीं कर रहे। वे आरजेडी के लिए भी अघोषित तौर पर ही घूम रहे हैं। वे घूम रहे हैं खुद को सीएम बनाने की अपेक्षा लेकर। लोगों से आशीर्वाद मांगते हैं। आश्वासन ताहते हैं। दावा करते हैं कि डेप्युटी सीएम बने तो पांच लाख नौकरियां दीं। सीएम बना दीजिए तो नौकरियों की बौछार कर दूंगा। वादे हैं, वादों का क्या ! अगर उन्होंने पढ़ाई की होती तो संविधान की यह बात जरूर पता होती कि मंत्रिपरिषद मुख्यमंत्री को सलाह देने के लिए होती है। काम सरकार करती है, जिसका मुखिया सीएम होता है। केंद्र सरकार कोई काम करती है तो नरेंद्र मोदी उसे अपने काम इसीलिए तो गिनाते हैं। बिहार सरकार ने पांच लाख नौकरियां दीं। आंकड़े की सच्चाई हम नहीं बता सकते। यह आंकड़ा तेजस्वी यादव अपनी उपलब्धियों में शुमार करते हैं। अगर ये आंकड़े सही भी हों तो इसका श्रेय तेजस्वी को कैसे मिल सकता है ? यह तो सरकार की उपलब्धि मानी जाएगी, जिसके मुखिया नीतीश कुमार थे। नरेंद्र मोदी का कोई मंत्री केंद्र सरकार के कामों को अपने खाते में तो नहीं बताता। फिर तेजस्वी कैसे इसे अपनी उपलब्धि बता रहे !तेजस्वी महत्वाकांक्षा पालें, पर अति से बचें महत्वाकांक्षा बुरी बात नहीं है। पर, अति महत्वाकांक्षा अमूमन आदमी की बर्बादी का सबब बनती रही है। अपवाद हो सकता है। कांग्रेस की आज जो दुर्गति है, यह उसकी अति महत्वाकांक्षा का परिणाम ही है। राहुल गांधी ने भी अति महत्वांकांक्षा पाल ली थी। अपनी पार्टी के पीएम मनमोहन सिंह का ड्राफ्ट सरेआम फाड़ दिया था, बकवास बता कर। आज वे कहां हैं और उनकी पार्टी की क्या हालत है, किसी से छिपा नहीं है। तेजस्वी दो बार डेप्युटी सीएम बने। यह उनका अवास्तविक हासिल था। राहुल का आकलन भी अवास्तविक ही था। थोड़ी भी बुद्धि होती तो वे अपने किसी वरिष्ठ-गरिष्ठ नेता को पहले मौका देते। तेजस्वी को दोनों बार यह पद सत्ता की सौदेबाजी में मिला था। नीतीश को सीएम बनना था और लालू को अपने बेटों की बेरोजगारी दूर करनी थी। खैर, सत्ता का स्वाद जिसने एक बार चख लिया, वह मरते दम तक इसके लिए प्रयासरत रहता ही है। तेजस्वी तो अभी युवा हैं।राजनीति के छल-छद्म देख कर भी अनजान तेजस्वी को उस राजनीति से इतनी बड़ी उम्मीद है, जिसके रोम-रोम में छल-छद्म भरा है। सत्ता के लिए कोई किसी से हाथ मिलाने को तैयार हो जाए। नमूना देखना हो तो वे अपने ही सूबे में देख लें। हाल तक नीतीश को दुत्कारते जो थकते नहीं थे, आज उन्हीं के साथ दाएं-बाएं बैठ कर सरकार चलाने में सहयोग कर रहे हैं। जी हां, मैं डेप्युटी सीएम सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा की बात कर रहा हूं। खुद नीतीश को देख लें, जिनकी सरकार में तेजस्वी दो बार गिनती के कुछ महीनों के लिए डेप्युटी सीएम रहे। नीतीश को अपनी कुर्सी बचानी या बरकरार रखनी थी तो वे लालू को बड़ा भाई कहने लगे और जैसे ही साथ छोड़ा, तेजस्वी के घराने से उनके लिए पलटू राम का मंत्रोच्चार होने लगा। तेजस्वी अभी अपने बूते किसी तरह 80 विधायकों तक पहुंचे हैं। उनमें भी चार दूसरे दल से राजनीतिक शुचिता के ज्वलंत उदाहरण के तौर पर टूट कर आए हैं। इस्लामी नारे के साथ उभरी एआईएमआईएम के चार विधायकों को उन्होंने अपने पाले में कर अपनी कूटनीति के ज्ञान का भी एहसास करा दिया है। तेजस्वी उस कांग्रेस पर भरोसा करते हैं, जिसके सीएम रह चुके अशोक चह्वाण जैसे लोग भी भाजपा की ओर भागे आ गए। भाजपा में आने वाले कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे बड़े नेताओं की फेहरिश्त तो और लंबी है। बिहार में ही देख लें। अशोक चौधरी पहले कहां थे ? कांग्रेस से कई लोगों को लेकर ही तो वे जेडीयू का हिस्सा बने थे। और दूर जाने की जरूरत नहीं। आपके ही तीन विधायकों- चेतन आनंद, नीलम देवी और प्रह्लाद यादव ने आपको छोड़ नीतीश का साथ दे दिया। यह तो आपने अपनी आंखों से देखा ही है ! भाजपा के बादशाह बने सम्राट चौधरी भी तो कभी आपके ही दल आरजेडी के साथ थे न !बिन मांगी सलाह- राजनीति के दांव-पेंच समझें तेजस्वी में जैसी तेजस्विता दिखती है, उसे देख कर आश्चर्य होता है कि कैसे वे पढ़ नहीं पाए! खैर, अति से अगर वे परहेज कर लें तो लोकतंत्र की मौजूदा सांवैधानिक व्यवस्था में वे आगे यकीनन कामयाब हो जाएंगे। इसमें दो मत नहीं। पर, धैर्य रखना होगा। इसमें कुछ वक्त जरूर लगेगा। किसी का बेटा होने के प्रभाव से बचना होगा। रोमन लिपि के माई-बाप के आपके जुमले समझने में किसी ने चूक कर दी तो वह आपके लिए भस्मासुर बन जाएगा। इसलिए कि आपके असली माई-बाप का राज उसने देखा है। वह इनवर्टेड कामा और रोमन लिपि के शब्दों पर माथा-पच्ची नहीं करेगा। उसके दिमाग में आपके माई-बाप की छवि ही उभरेगी। आप ऐसे में सर्वसमाज को कैसे साधिएगा ! इसलिए नेक सलाह है कि जनता का आशीर्वाद मांगिए। शायद आपकी विनम्रता और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर वह आपका कायल हो जाए। पर, इस जुमले के फेर में पड़ कर 60 पार के लोगों को भ्रम में मत डालिए। यह आपके लिए अहितकर हो सकता है। बिहार में बुजुर्गों की संख्या भी कम नहीं है। सच कहें तो यह लगातार बढ़ रही है। समाज कल्याण विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 42.60 लाख लोग 60 की उम्र पार कर चुके हैं। ये तो वैसे बूढ़े हैं, जो 400 से 500 रुपए पेंशन पा रहे। संभव है कि बहुत से लोग पेंशन न भी ले रहे हों। इन्होंने 90 के दशक का खौफ देखा है। (ये लेखक के निजी विचार हैं)