Opinion: बंगाल में फिर जीती ममता, मगर हिंसा में मारे गए लोगों को इंसाफ मिलना बाकी है

कोलकाता : पश्चिम बंगाल में टीएमसी पंचायत चुनाव में जीत का जश्न मना रही है। इस जश्न में उन परिवारों की चीत्कार कहीं खो गई, जिनके परिजन चुनावी हिंसा के शिकार हुए। 16 मौतों के लिए के लिए मातम का वक्त अभी खत्म नहीं हुआ है। खून से सने पोलिंग बूथ, टूटी मतपेटियां और बुलेट-बम की खौफनाक तस्वीरें भी जश्न के गुलाबी-हरे रंग में खो जाएंगी। यह जीत इसकी गारंटी नहीं है कि अगले चुनाव में यहां हिंसा नहीं होगी। आखिर चुनावों के दौरान बंगाल में हिंसा क्यों होती है? क्या यह पश्चिम बंगाल की नीयती है या सरकारी तंत्र की विफलता। चुनाव आयोग या सरकार, किसी न किसी को इन मौतों की जिम्मेदारी लेनी होगी। चुनावी हिंसा तो बंगाल की संस्कृति बन गई हैबंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान 16 लोगों की मौत हुई थी और उसके बाद भी 9 हत्याएं हुई थीं। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद भी 9 लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। 2018 के पंचायत चुनाव में भी बंगाल में 23 लोग मारे गए थे। इससे पहले भी चुनावों में राजनीतिक हत्याएं होती रही हैं। नक्सलबाड़ी के लिए मशहूर बंगाल में राजनीतिक हत्याओं का इतिहास पांच दशक से ज्यादा पुराना है। 1971 में कांग्रेस के सिद्धार्थ शंकर रे के शासनकाल में शुरू हुआ हिंसा का दौर आज तक नहीं थमा। कांग्रेस के बाद सीपीएम, फिर टीएमसी सत्ता में आई। लंबे समय तक ज्योति बसु, बुद्धदेब भट्टाचार्य और सीएम के तौर पर कुर्सी पर काबिज रहीं मगर इनके राज में हिंसा नहीं रुका। 2011 में वाम दलों का किला ढहा तब यह उम्मीद जताई गई कि ममता बनर्जी इस रक्तरंजित गाथा पर पूर्णविराम लगाएंगी, मगर ऐसा नहीं हुआ। ममता बनर्जी के शासनकाल में भी 12 साल से बंगाल चुनावों में लहूलुहान हो ही रहा है। एनसीआरबी के आंकड़े बताता हैं कि 10 साल के शुरुआती ममता राज में 150 लोग चुनावी हिंसा के शिकार हुए। अब तो चुनावी हिंसा भद्रलोक के बंगाल की संस्कृति बन गई है। बंगाल में चुनावों के दौरान हिंसा आखिर होती क्यों है?राजनीतिक हिंसा का दौर 70 के दशक में उभरा। वर्चस्व की लड़ाई में सीपीएम के कैडर्स ने वोटरों को धमकाना शुरू किया। अपने-अपने इलाकों में पार्टी के लिए ज्यादा वोट जुटाने वाले कैडर पार्टी में बड़े ओहदों पर बैठाए गए। थाना और प्रशासन में उनका दखल बढ़ा। जिन कार्यकर्ताओं का कद बढ़ा, वह खनन माफिया बन गए। उनका नियंत्रण बालू और कोयला खदानों पर होने लगा। इन कार्यकर्ताओं के बढ़ते कद ने बंगाल को राजनीतिक हिंसा के लिए प्रेरित किया। 2011 तक पहले कांग्रेस, फिर टीएमसी माकपा से यह लड़ाई रहती रही। 2011 में तृणमूल कांग्रेस ने सत्ता पर कब्जा किया तो राजनीतिक तौर से बंगाल में परिवर्तन हुआ, मगर ग्राउंड पर दबंगई और माइनिंग माफिया वाला नेटवर्क बना रहा। जब दूसरी बार ममता बनर्जी सरकार में लौटीं तब एक परिवर्तन और हुआ। वामपंथी दलों के दबंग नेता और माफिया पांच साल में तृणमूल कांग्रेस का हिस्सा बन चुके थे। राजनीति की मजबूरी है कि ऐसे लोगों को सत्ता दंडित नहीं कर सकती है। राजनीति संभावनाओं का खेल है। अभी बीजेपी पश्चिम बंगाल में जिस तरह संघर्ष कर रही है, वह 1996-98 की याद दिलाती है। उस दौर में वामपंथी दलों के खिलाफ ममता बनर्जी संघर्ष कर रही थी। संभव है कि अगले पांच साल में सत्ता बदल जाए। चुनावी हिंसा, फिर राजनीतिक हिंसा से जूझ रहे बंगाल में दबंगों और माफिया का नेटवर्क बीजेपी में शिफ्ट कर जाए। नाउम्मीद होने से बेहतर है कि हम शांत और सुंदर बांग्ला बनाने की संभावना पर विचार करें। फिलहाल यह विचार जरूर किया जाना चाहिए चुनाव में मारे गए लोगों के परिवार को इंसाफ जरूर मिले। ऐसा न हो कि जीत के नारों में उनके परिवार की सिसकियां गुम हो जाए।