ओपेक के पेट्रोलियम उत्पादन में कटौती के कदम से अमेरिका-नाटो की चिंता बढ़ी

पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) और रूस के प्रतिदिन दस लाख बैरल तेल के उत्पादन की कटौती करने का कदम विश्व स्तर पर भू-राजनीति को प्रभावित करने की अमेरिकी क्षमता के लिए चुनौती है.

सऊदी नेतृत्व वाले तेल उत्पादकों का संघ और रूस ओपेक का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनके पास तेल के उत्पादन में कमी करने का निर्णय लेने के अपने कई कारण हैं. हालांकि, यह अमेरिका खास कर जो बाइडेन के लिए बड़ी चिंता का विषय है. नवंबर में अमेरिकी सीनेट और हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स का मध्यावधि चुनाव है और तेल की कीमतें काफी हद तक सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक पार्टी की किस्मत तय करेंगी.

क्या कटौती से भारत प्रभावित होगा?

इस फैसले का असर भारत और विकसित देशों पर कुछ हद तक तो पड़ेगा, मगर रूस से आयात किये जाने वाले तेल को सीमित करने के यूरोपीय संघ के फैसले का असर पश्चिमी देशों पर ज्यादा पड़ेगा. भारत अपने जरूरत का 83 फीसदी पेट्रोलियम पदार्थ आयात करता है. मगर यूक्रेन युद्ध में शामिल दोनों गुट के साथ तारतम्य बनाये रखने और रूस के साथ रुपया-रूबल के तहत आर्थिक लेन-देन के सावधानीपूर्ण कदम के कारण भारत को कम झटका लगने का अनुमान है.

पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय के तहत इंडियन स्ट्रेटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व्स लिमिटेड (आईएसपीआरएल) मंगलुरु, उडुपी के पादुर और विशाखापत्तनम में अपनी तीन भंडारण सुविधाओं में भारत 36.92 मिलियन बैरल का रणनीतिक तेल भंडार जमा करके रखता है जो देश की साढ़े नौ दिन की तेल की मांग को पूरा करने में सक्षम है.

आईएसपीआरएल ओडिशा के चंडीखोल में चौथे रिजर्व को बनाने की भी योजना बना रहा है और पादुर तेल रिजर्व की क्षमता को मौजूदा 25 लाख टन से दोगुना करने की तैयारी कर रहा है.

इसके अलावा भारतीय रिफाइनरियां 64.5 दिनों का तेल का भंडार तैयार रखती हैं. इस तरह से भारत में राष्ट्रीय स्तर पर कुल 74-दिन का तेल रिजर्व होता है. भारतीय रिफाइनरियों को इस मुश्किल समय में तेल के भंडार को बढ़ाने के लिए जहां और जब भी रियायती दर पर तेल उप्लब्ध हो वहां सौदों की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.

ओपेक ने मंदी को जिम्मेदार ठहराया

सऊदी ने हाल के दिनों में पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या के बाद से अमेरिका से थोड़ी दूरी बना ली है. कहा जाता है कि किंग सलमान के बेटे और सिंहासन के लिए नामित उत्तराधिकारी मोहम्मद बिल सलमान ने हत्या के लिए लोग भेजे थे.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने मोहम्मद बिन सलमान को खुलेआम हत्यारा बताया और उनका बहिष्कार करने में सबसे आगे रहे. इसकी भरपाई के लिए जुलाई में बाइडेन की छोटी सी सऊदी यात्रा लगता है काम नहीं आई और अमेरिकी प्रस्तावों को लेकर मोहम्मद बिन सलमान का रुख ठंडा ही रहा.

सउदी अरब और तेल उत्पादक देशों के 12 सदस्यों को कटौती नहीं करने देने की अमेरिका की कोशिश भी लगता है काम नहीं आई. उत्पादन में कटौती से रूस को आसानी होगी. बाजार में तेल की कम उप्लब्धता से कीमतें स्थिर रहेंगी और रूस को परेशानी का सामना नहीं करना होगा.

एक अनुमान के मुताबिक रूस तेल और गैस की बिक्री से प्रतिदिन पांच सौ मिलियन डॉलर कमाता है. अगर यूरोपियन यूनियन और अमेरिकी कंपनियों पर रूस पर दबाव डालने के लिए सीमित तेल लेने को कहा गया तब लगता है कि यह चाल फेल हो गई है.

नहीं लगाना चाहिए राजनीतिक अर्थ

तेल उत्पादक देशों का तर्क है कि उत्पादन में कमी करने के निर्णय का कोई राजनीतिक अर्थ नहीं लगाना चाहिए. यह कदम केवल संभावित वैश्विक मंदी को देखते हुए उठाया गया है. अगर मंदी आती है तो तेल की मांग कम हो जाएगी. अगर तेल उत्पादन वर्तमान स्थिति में रहता है तब उत्पादक देशों पर दाम कम करने का दबाव बढ़ जाएगा. उनका तर्क है कि उत्पादन में कटौती इस तरह की संभावना को रोकने के लिए एक यथार्थवादी कदम है.

तेरह सितंबर को जारी ओपेक मासिक तेल बाजार रिपोर्ट ने ही संकेत दे दिया था कि उत्पादन में कटौती की जाने वाली है. रिपोर्ट में कहा गया कि अगस्त में लगातार दूसरे महीने स्पॉट कीमतों में गिरावट आई.

ब्रेंट-डब्ल्यूपीआई फ्यूचर्स के लिए यह गिरावट औसतन 6.98 डॉलर प्रति बैरल रही जबकि नॉर्थ सी डेटेड बेंचमार्क के लिए गिरावट 13 डॉलर प्रति बैरल रही. दुबई, ओपेक रेफरेंस बास्केट, आईसीई ब्रेंट और निमेक्स डब्ल्यूटीआई सहित दूसरे बेंचमार्क सूचकांकों में भी औसत से ज्यादा गिरावट दर्ज की गई.

रिपोर्ट में कहा गया है कि हर क्षेत्र में तेल की खपत में सुधार हुआ है. प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में विकास या तो स्थिर रहा है या मामूली रूप से बढ़ा है. इसमें भू-राजनीतिक तनाव, महामारी के बाद के प्रभाव, आपूर्ति श्रृंखला की परेशानी, उच्च ऋण और प्रमुख केंद्रीय बैंकों के ब्याज दरों में वृद्धि जैसे मुद्दों पर भी जोर दिया गया. रिपोर्ट से साफ प्रतीत होता है कि तेल उत्पादक देशों के समूह के पास उत्पादन में कटौती के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था.

अमेरिका, यूरोप सबसे ज्यादा प्रभावित

ओपेक की यह सफाई अमेरिका को पसंद नहीं आई है जहां इन दिनों पंपों पर पेट्रोल की कीमतों में छह डॉलर से अधिक की बढ़ोतरी हो गई है. यूरोप में गैस और तेल की कीमतें फरवरी के स्तर से 40 प्रतिशत बढ़ गई हैं. अमेरिकी प्रशासन तेल में संभावित मूल्य वृद्धि को रोकने के लिए अपने राष्ट्रीय भंडार से 10 अरब बैरल तेल निकालने की तैयारी कर रहा है.

यूरोप में स्थिति और भी भयावह है. महाद्वीप में सर्दी का सीजन आने वाला है. इस दौरान घरों को गर्म रखने के लिए तेल और गैस की मांग चरम पर पहुंच जाती है. प्रतिबंधों ने पहले ही रूसी आपूर्ति में कटौती कर दी है. नॉर्ड स्ट्रीम 1 और 2 पाइप लाइनों में विस्फोट के कारण दिसंबर तक संभावित आपूर्ति में भी गिरावट आ रही है जिसके लिए दोनों पक्ष एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं.

यूक्रेन युद्ध में अमेरिका-नाटो के रणनीतिकारों के लिए किसी भी तरह की तेल के मूल्य में वृद्धि बड़ी समस्या ला सकती है. यूक्रेन युद्ध को समर्थन दे रहे देश अपना हाथ पीछे खींच सकते हैं.

अमेरिका के सहयोगी पहले से ही शिकायत कर रहे हैं. पाइपलाइन के माध्यम से रूस से गैस की आपूर्ति आधी हो जाने से अमेरिका से सीएनजी खरीदने को लेकर जर्मनी नाराज है. जर्मनी के वित्त मंत्री रॉबर्ट हैबेक ने बयान दिया कि अमेरिका और दूसरे दोस्त देश यूरोप में ऊर्जा संकट का फायदा उठा रहे हैं.

गैस की अधिक कीमत लेने की शिकायत

एनबीसी न्यूज द्वारा अनुवादित जर्मन क्षेत्रीय दैनिक नी ओस्नाब्रुकर ज़ितुंग को दिए एक साक्षात्कार में हेबेक ने शिकायत की कि “साथी देशों सहित कुछ देश अपनी गैस के लिए बहुत ही अधिक कीमत ले रहे हैं.”

हेबेक ने मांग की कि अमेरिका अपने रणनीतिक भंडार में से थोड़ा तेल बाहर निकाले जिस तरह यूक्रेन युद्ध की शुरुआत में महाद्वीप की परेशानी को कम करने के लिए यूरोप ने किया था. उन्होंने आगे सुझाव दिया कि यूरोपीय गैस खरीदारों को विक्रेताओं (अमेरिका) से सस्ते में सौदा करने के लिए एक गुट बनाना चाहिए.

हेबेक परोक्ष रूप से कनाडा के विदेश मंत्री मेलानी जोली और अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिकन के संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस का जिक्र कर रहे थे जिसमें उन्होंने नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन में विस्फोटों को एक जबरदस्त अवसर बताया जो यूरोप को रूसी गैस लेने से दूर कर देगा. हालांकि यूरोप के लोग इसे दूसरी तरह से देख सकते हैं जैसे यूरोप को अपनी सीएनजी बेच कर अमेरिका जोरदार लाभ कमाने की कोशिश कर रहा हो.

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