ब्याज भुगतान का बढ़ता बोझ
ब्याज भुगतान के बढ़ने से बजटीय संसाधन हर साल कम हो रहे हैं। मिश्रा का कहना है कि अगर केंद्र और राज्यों को मिला लिया जाए तो भारत में रेवेन्यू की तुलना में इंटरेस्ट पेमेंट्स का रेश्यो एमर्जिंग मार्केट्स के एवरेज से तीन गुना है। इसमें कम से कम एक तिहाई कटौती की जरूरत है। हालांकि इससे तत्काल किसी संकट की आशंका नहीं है। फिस्कल डेफिसिट को बनाए रखने के लिए रियल जीडीपी ग्रोथ को रफ्तार रियल इंटरेस्ट रेट से ज्यादा होनी चाहिए। आज यह स्थिति है। लॉन्ग टर्म रिस्क के बावजूद भारत कई साल तक इस रास्ते पर चल सकता है।सीतरमण के बजट में प्रतिकूल रुझानों में कोई बदलाव नहीं दिखता है। टोटल रेवेन्यू के मुकाबले केंद्र के इंटरेस्ट पेमेंट्स का रेश्या 2021-22 में 37 फीसदी था, 2022-23 में यह 40 फीसदी था और अगले साल इसके 46.3 फीसदी रहने का अनुमान है। इसी तरह टैक्स रेवेन्यू के मुकाबले इंटरेस्ट पेमेंट्स का रेश्यो 2021-22 में 44.6 फीसदी और 2022-23 में 45.1 फीसदी रहा। अगले साल इसके 46.3 फीसदी रहने का अनुमान है। जल्दी ही यह स्थिति आ जाएगी कि कुल टैक्स रेवेन्यू का आधा हिस्सा इंटरेस्ट पेमेंट्स में चला जाएगा।
टैक्स रिफॉर्म्स का फायदा नहीं
इस एक समाधान टैक्स कलेक्शन बढ़ाकर किया जा सकता है। देश के कुल टैक्स रेवेन्यू (केंद्र और राज्यों का) का रेश्यो जीडीपी के मुकाबले कई साल से नहीं बढ़ा है। इकॉनमिक सर्वे के मुताबिक यह एमर्जिंग इकॉनमीज की तुलना में 5.5 फीसदी कम है। टैक्स चोरी, भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के कारण टैक्स रेवेन्यू कम है। इससे निपटने के लिए पिछले दशक में कई टैक्स रिफॉर्म्स किए गए। इसमें सबसे बड़ा कर सुधार जीएसटी था। कई तरह के टैक्स को इसमें मिला दिया गया। डायरेक्ट टैक्स में भी कई तरह के सुधार किए गए। इसे आसान बनाया गया है और इसमें डिजिटाइजेशन को बढ़ावा दिया गया है। टैक्स चोरी करने वालों को पकड़ने के लिए ब्लैक मनी के खिलाफ अभियान चलाए गए हैं। साथ ही इनकम टैक्स विभाग के छापों की संख्या भी कई गुना बढ़ गई है।लेकिन इन सभी प्रयासों के बावजूद एक्चुअल टैक्स रेवेन्यू पर कोई खास असर नहीं दिख रहा है। बजट दस्तावेजों में एक चार्ट दिया गया है जिसमें जीडीपी के मुकाबले सेंट्रल टैक्स रिसीट्स के आंकड़े दिए गए हैं। 2013-14 में यह रेश्यो 10.1 फीसदी था जो 2017-18 में बढ़कर 11.2 फीसदी पहुंच गया। कोरोना से पहले 2019-20 में यह गिरकर 9.8 फीसदी रह गया। 2022-23 में यह फिर बढ़कर 11.1 फीसदी पहुंच गया और अगले साल भी इसके इसी स्तर पर रहने का अनुमान है। कुल मिलाकर पिछले दशक में किए गए टैक्स रिफॉर्म्स का निराशाजनक परिणाम रहा है। कुछ नया करने की जरूरत है लेकिन फिलहाल सरकार के पास ऐसा कोई आइडिया नहीं है।
बीजेपी मना सकती है जश्न
हालांकि दुनिया के कई देशों के अनुभवों ने दिखाया है कि ज्यादा डेफिसिट और कर्ज के साथ इकॉनमी को चलाया जा सकता है। मास्ट्रिच एग्रीमेंट के मुताबिक यूरोजोन के किसी भी सदस्य देश का राजकोषीय घाटा उसकी जीडीपी के तीन फीसदी से अधिक नहीं हो सकता है। यूरोप के कई देशों में यह इस लिमिट से कहीं ज्यादा है। इकॉनमिस्ट Reinhardt और Rogoff ने चेताया था कि डेट/जीडीपी रेश्यो अगर 90 फीसदी से ज्यादा होता है तो इससे इकनॉमिक ग्रोथ में गिरावट आ सकती है। कई पश्चिमी देशों में यह रेश्यो दोगुना पहुंच चुका है और इससे कोई संकट पैदा नहीं हुआ है।भारत में भी हम फिस्कल डेफिसिट को जीडीपी का तीन फीसदी रखने के लक्ष्य वाले कानून को हम पीछे छोड़ चुके हैं। इसके बजाय अब हमारा लक्ष्य डेट/जीडीपी रेश्यो को 60 परसेंट तक लाना है। इसमें केंद्र का शेयर 40 फीसदी और राज्यों का शेयर 20 फीसदी होगा। कोरोना के कारण यह रेश्यो 90 फीसदी तक चला गया था और अभी 85 फीसदी के आसपास है। हम नियर लॉन्ग टर्न निर्वाण के आसपास भी नहीं हैं। लेकिन Keynes के शब्दों में हम लॉन्ग रन में हम मर चुके हैं। अभी बीजेपी इस बजट का जश्न मना सकती है क्योंकि इसे इकनॉमिस्ट्स की वाहवाही मिली है और इसमें आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पर्याप्त मसाला है।