महाराष्ट्र के जालना में पुलिस लाठीचार्ज की घटना के बाद जहां एक बार फिर मराठा आरक्षण की मांग ने जोर पकड़ लिया है, वहीं एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली प्रदेश सरकार विरोधियों के निशाने पर आ गई है। INDIA गठबंधन से जुड़ी कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव गुट) और NCP (शरद पवार ग्रुप) जैसी पार्टियां तो सरकार की तीव्र आलोचना करते हुए गृहमंत्री देवेंद्र फड़णवीस का इस्तीफा मांग ही रही हैं, बीजेपी के अंदर से भी पंकजा मुंडे जैसे कुछ नेता खुले रूप में और कई दूसरे नेता दबे-छुपे स्वर में इस प्रकरण पर नाखुशी जाहिर कर चुके हैं। हालांकि सरकार ने जालना जिले में मराठा आरक्षण की मांग के समर्थन में चल रही भूख हड़ताल से निपटने के ढंग को लेकर वहां के SP को जबरन छुट्टी पर भेज दिया है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने भी भरोसा दिलाया है कि वह मराठा आरक्षण के पक्ष में हैं और जल्दी ही सरकार इस बारे में कोई ठोस कदम उठाएगी। सरकार की ओर से आंदोलनकारियों से संपर्क करके उन्हें समझाने-बुझाने के प्रयास भी चल रहे हैं। लेकिन राज्य में एक बार फिर से गरमा चुके इस मसले को शांत करने में इन सबसे कितनी मदद मिलती है, यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा।असल में यह महाराष्ट्र की राजनीति का एक ऐसा संवेदनशील मसला है, जिस पर कोई भी विरोध में नहीं दिखना चाहता। राज्य की आबादी में 30 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी रखने वाला मराठा समुदाय प्रदेश की राजनीति पर भी अच्छी पकड़ रखता है। अब तक महाराष्ट्र के ज्यादातर मुख्यमंत्री मराठा ही रहे हैं। यही वजह है 2018 में जब मराठा आरक्षण के सवाल पर राज्य में बड़ा आंदोलन हुआ तो तकरीबन सभी दलों ने इस मांग का समर्थन किया।नवंबर 2018 में विधानसभा में मराठा आरक्षण बिल पास हुआ, जिसके मुताबिक राज्य की सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में समुदाय को 16 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया था। मगर बाद में इसे कोर्ट में चुनौती दी गई और 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया। इस आरक्षण को लागू करने से राज्य में 50 फीसदी की अधिकतम आरक्षण सीमा का उल्लंघन हो रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि 50 फीसदी की आरक्षण सीमा पर पुनर्विचार करने की जरूरत नहीं है। ऐसे में इस संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दे को धैर्य और समझदारी से हैंडल करने की जरूरत है।जालना की घटना इस बात का सबूत है कि पुलिसिया जोर-जबर्दस्ती से हालात और बिगड़ने का ही खतरा है। धीरे-धीरे ही सही, पर समाज के सभी तबकों को यह बात समझने-समझाने की भी जरूरत है कि आरक्षण की नीति से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाली जाने लगी हैं। सामाजिक संदर्भों में इस नीति की अहमियत भले हो, इसे रोजगार की समस्या का हल मानने वाली सोच हमें शायद ही कहीं ले जा सके।