गुरिल्ला लड़ाई में माहिर DRG के जवान, भर्ती में स्थानीय युवाओं को तरजीह, धरतीपुत्रों से कांपते हैं नक्सली

रायपुर: छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में बुधवार दोपहर नक्सलियों ने एक बड़ा हमला किया। इसमें 11 जवान शहीद हो गए। हमला दंतेवाड़ा के अरनपुर में किया है। सुरक्षाबलों की गाड़ी को आईईडी से निशान बनाया गया। नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ की जिस जगह इस वारदात को अंजाम दिया, वह उनका गढ़ है। दंतेवाड़ा में नक्सलियों पर काबू पाना सुरक्षाबलों के लिए चुनौती रहा है। नक्सलियों के खिलाफ लगातार ऑपरेशन चलाए जाते रहे हैं, लेकिन अभी तक इस इलाके में लाल आतंक खत्म नहीं हुआ है। इलाके नक्सलियों पर लगाम लगाने के लिए डीआरजी जवानों की टोली काम करती है। आखिर डीआरजी जवान कौन होते हैं। इनकी ट्रेनिंग कैसे होती है। आइए जानते हैं डीआरजी जवानों के बारे में। 2008 में हुई डीआरजी के गठन की शुरुआतकरीब 40 हजार वर्ग मीटर क्षेत्र में फैले बस्तर क्षेत्र के 7 जिलों में नक्सलियों से मुकाबले के लिए डीआरजी के गठन की शुरुआत 2008 में हुई थी। सबसे पहले कांकेर और नारायणपुर जिलों में नक्सल विरोधी अभियान में इसे शामिल किया गया था। वर्ष 2013 में बीजापुर और बस्तर में इसका गठन किया गया। 2014 में सुकमा और कोंडागांव के बाद 2015 में दंतेवाड़ा में यह अस्तित्व में आया। डीआरजी जवान नक्सलियों के सबसे बड़े दुश्मन माने जाते हैं। इसलिए डीआरजी के जवान नक्सलियों के निशाने पर रहते हैं। पूर्व में हुए हमले में सबसे ज्यादा डीआरजी के जवान ही नक्सलियों के निशाने पर आए हैं। धरतीपुत्र होते हैं डीआरजी जवानडीआरजी में स्थानीय युवकों को शामिल किया जाता है, जिन्हें इलाके की पूरी जानकारी होती है। कई बार आत्मसमर्पण कर चुके नक्सली भी इसका हिस्सा बनते हैं। स्थानीय होने के कारण वे यहां की संस्कृति और भाषा से परिचित होते हैं। आदिवासियों से जुड़ाव होने के चलते वे नक्सलियों से मुकाबले के लिए उनका सहयोग आसानी से हासिल कर लेते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि नक्सलियों के खून-खराबे से पीड़ित जवानों को उनसे लड़ने के लिए किसी अतिरिक्त प्रेरणा की जरूरत नहीं होती। जवानों में नक्सलियों के प्रति पहले से आक्रोश भरा होता है। डीआरजी जवान जी जान के साथ नक्सलियों के खिलाफ लड़ते हैं। गुरिल्ला लड़ाई में माहिर होते हैं जवानअपने गठन के बाद से डीआरजी नक्सलियों के खिलाफ कई अभियानों को सफलतापूर्वक अंजाम दे चुका है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वे नक्सलियों की गुरिल्ला लड़ाई का उन्हीं की भाषा में जवाब देते हैं। उन्हें जंगल के रास्तों का पता होता है। उन्हें नक्सलियों की आवाजाही, आदतें और काम करने के तरीकों की भी जानकारी होती है। इलाके में नक्सलियों की मदद करने वालों के बारे में भी उन्हें पता होता है। इसकी मदद से वे नक्सलियों के खिलाफ अभियान की योजना बनाते हैं जो अक्सर सफल होते हैं। डीआरजी जवानों को नक्सलियों के एक्टिव होने की सबसे पहले खबर हो जाती है। डीआरजी जवान स्थानीय होते हैं, जिसकी वजह से इन्हें स्थानीय बोली और भाषा पता होती है। जवान आराम से स्थानीय लोगों से संवाद स्थापित करते हैं और नक्सलियों के बारे में खबर निकाल लेते हैं। छोटे समूह बना कर देते हैं कार्रवाई को अंजामडीआरजी के जवानों को लड़ाई की आधुनिक शैली के साथ जंगलों में मुठभेड़ की ट्रेनिंग भी दी जाती है। इसके लिए उन्हें दूसरे राज्यों में सेना के कैंप में भेजा जाता है। सुरक्षाबलों के विपरीत इनके काम करने का तरीका भी अलग होता है। डीआरजी के जवान अक्सर छोटे समूहों में जंगलों में प्रवेश करते हैं। इससे गोपनीयता बनी रहती है और जान-माल की हानि की भी कम आशंका होती है। डीआरजी के जवान विशेष ट्रेनिंग के बाद फिल्ड में भेजे जाते हैं। कई बार नक्सलियों की ओर से सीधी दी जाने वाली जानकारी डीआरजी जवानों तक पहुंच जाती है। नक्सलियों को देर तक पता नहीं होता कि स्थानीय जवान डीआरजी ज्वाइन कर चुका है। इसमें पूर्व में आत्मसमर्पण कर चुके नक्सली भी शामिल होते हैं। डीआरजी जवानों के पास इनपुट काफी ज्यादा होता है। जिसकी वजह से कार्रवाई करने में ये आगे रहते हैं। डीआरजी जवानों पर सबसे ज्यादा नक्सलियों की नजर रहती है, क्योंकि ये जवान उनके लिए खतरा होते हैं। इसलिए डरते हैं नक्सलीडीआरजी के जवानों की नक्सलियों के बीच भी घुसपैठ होती है। दलम, संघम, चेतना नाट्य मंडली आदि में शामिल नक्सलियों से उनकी अक्सर पहचान होती है। इसके जरिये वे नक्सलियों की रणनीति और संभावित हमलों की जानकारी हासिल कर लेते हैं। लोकल कॉन्टैक्ट्स के जरिये आसानी से नक्सलियों के छिपने के स्थान तथा कैम्पों के बारे में भी उन्हें जानकारी मिल जाती है। यही कारण है कि नक्सली संगठनों को सीआरपीएफ और पुलिसकर्मियों से ज्यादा डर इन्हीं से होता है। डीआरजी जवानों पर स्थानीय लोग आसानी से विश्वास कर लेते हैं। क्योंकि ये पूरी तरह लोकल जवान रहते हैं। जिनकी डीआरजी में बहाली की जाती है। डीआरजी जवानों के पास स्थानीय पत्रकारों के अलावा स्थानीय सूत्रों से भी नक्सलियों के बारे में खबर पहुंचती है। डीआरजी जवान अपनी खबर को आगे भेजते हैं। उसके बाद नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन को तय किया जाता है।