Modi@10: मोदी सरकार की विदेशी नीति ने दुनिया को बता दिया- ये नया भारत है

नई दिल्ली: ‘क्या दुनिया भारत को परिभाषित करती रहेगी या भारत अपनी पहचान खुद गढ़ेगा?’ इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं- ‘क्या दुनिया भारत के लिए सीमाएं तय करती रहेगी या फिर भारत अपना विस्तार खुद तय करेगा?’ विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘द इंडिया वे’ में यह सवाल किया है। उन्होंने आगे इसका जवाब भी दिया है। वो इसी पुस्तक में लिखते हैं, ‘भारत किसी अन्य देश को यह अधिकार नहीं दे सकता है कि वो यह तय करे कि भारत कौन सी नीति अपनाए और किससे दूर रहे।’ 26 मई, 2014 को जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो दक्षेस देशों (SAARC Countries) के नेताओं को समारोह में शामिल होने का न्योता दिया था। साफ था कि मोदी सरकार का विदेश नीति पर खास फोकस रहने वाला है। आगामी वर्षों में यह दिखने भी लगा कि नई सरकार अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर कितने स्पष्ट नजरिए के साथ आगे बढ़ रही है। पहले कार्यकाल में के नेतृत्व में विदेश मंत्रालय ने कई कीर्तिमान गढ़े तो 2019 से शुरू हुए दूसरे कार्यकाल में एस. जयशंकर ने विदेश मंत्री के रूप में देश-दुनिया में चर्चा के केंद्र में रहे। इन दोनों कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने विदेशी दौरों से भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर जो छाप छोड़ी, वो इतिहास के पन्नों में सुनहरे शब्दों में वर्णित होगा। के खासकर मुस्लिम देशों के साथ नजदीकियां और इंडियन डायस्पोरा के साथ मेलजोल बढ़ाने के प्रयासों को तो ‘अनूठा’ और ‘आश्चर्य’ के खांचे में ही रखना होगा। मोदी सरकार के 10 वर्षों की उपलब्धियों की सीरीज में आज बात ‘विदेश नीति’ की। तो चलिए जानते हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत के लिए क्या-क्या हासिल किए। नए भारत की विदेश नीति के दो आयाम को दो भागों में बाटें तो दो पैमाने उभरते हैं- पहला, सहयोग और समर्थन; दूसरा, कड़ाई और दंड। इन दोनों के स्पष्ट उदाहरण श्रीलंका और पाकिस्तान के साथ भारत की कार्रवाइयों में देखे जा सकते हैं। भारत ने इस बीच अफगानिस्तान में तालिबान का शासन लौटने के बाद स्टिक एंड कैरट पॉलिसी भी दिखाई। एक तरफ मानवीय मदद की तो दूसरी तरफ तालिबानी शासन को मान्यता नहीं दी। जहां तक बात पड़ोस से इतर सुदूर पश्चिम, पश्चिम एशिया, ग्लोबल साउथ की बात है तो भारत ने स्पष्ट कर दिया कि ‘साझेदारी सभी से, गठबंधन किसी से नहीं।’ रूस-यूक्रेन युद्ध में मोदी सरकार की यह नीति का दुनिया ने दीदार कर लिया। अमेरिका और यूरोप के साथ बढ़ती साझेदारी के बावजूद भारत ने रूस से दूरी बनाने का दबाव स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, भारत ने हर मंच पर खुलकर घोषणा की कि पश्चिम यह सोचना बंद कर दे कि उसका सुख-दुख दुनिया के सुख-दुख हैं। एस. जयशंकर: भारत के बेहतरीन प्रवक्ताविदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 17 फरवरी को म्यूनिख सिक्यॉरिटी कॉन्फ्रेंस में अमेरिकी विदेश मंत्री टोनी ब्लिंकन के सामने एक सवाल के जवाब में जो कहा, वह नए भारत की बदली विदेश नीति का सबसे ताजा और बेहतरीन नमूना है। उनसे पूछा गया कि था, ‘भारत आज भी रूस से तेल खरीद रहा है। क्या आपके साझेदार अमेरिका के लिए यह कोई समस्या नहीं है? क्या आप वही करते रहेंगे जो आपकी इच्छा होगी?’ इसके जवाब में जयशंकर ने बेहिचक कहा, ‘हमारे पास कई सारे विकल्प हैं, यह बात सही है। क्या यह एक समस्या है? तो, यह समस्या क्यों होनी चाहिए बल्कि अगर मैं इतना स्मार्ट हूं कि कई विकल्प खुले रखता हूं तो आपको मेरी प्रशंसा करनी चाहिए।’ जयशंकर जब यह बोल रहे थे तो टोनी ब्लिंकन उनकी आंखों में झांक रहे थे, फिर भी जयशंकर ने दिल की बात कहने में रत्ती भर भी झिझक नहीं दिखाई। नतीजतन ब्लिंकन भी मुस्करा रहे थे और सवाल पूछने वाली एंकर ने ठहाके लगाने लगी। उधर, दर्शकों की तरफ से भी तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। जयशंकर आगे बढ़ते हैं। वो कहते हैं, ‘क्या यह दूसरे लोगों (अमेरिका) के लिए समस्या है? मैं ऐसा नहीं सोचता हूं।’ फिर वो पहले एंटनी ब्लिंकन और जर्मन विदेश मंत्री अन्नालिना बैबॉक (Annalena Baerbock) की तरफ इशारा करके कहते हैं, ‘जहां तक बात इनकी (अमेरिका) और उनकी (जर्मनी) है तो हमने यह समझाने की कोशिश की है कि देशों पर कैसे-कैसे दबाव होते हैं। एक ही आयाम में फंसे रहकर रिश्ता बनाए रखना कितना कठिन है। फिर देशों के बीच रिश्तों का अपना-अपना इतिहास होता है।’ फिर वो बताते हैं कि कैसे भारत और अमेरिका के रिश्ते, अमेरिका और जर्मनी के रिश्तों से अलग हैं। और एक वक्त में जयशंकर यहां तक कहते हैं, ‘टोनी (अमेरिकी विदेश मंत्री) ने ठीक ही कहा कि ‘अच्छे साझेदार विकल्प देते हैं’, और होशियार साझेदार उन विकल्पों में से कुछ को अपना लेते हैं।’ क्या मौकापरस्त हो गया है मोदी का भारत?’विश्व व्यवस्था में उदीयमान भारत को न केवल अपने हितों की स्पष्ट पहचान करनी होगी बल्कि दुनिया को खुलकर बताना भी होगा।’ ‘द इंडिया वे’ में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भारत का एक और नजरिया स्पष्ट किया जिसकी झलक ऊपर म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में उठे सवाल और उसके जवाब में मिल जाती है। लेकिन उसी बातचीत में जयशंकर ने कहा कि क्या भारत को मौकापरस्त समझा जाना चाहिए? वो कहते हैं कि ऐसा नहीं है। हम सिर्फ मौके नहीं ढूंढते रहते बल्कि हमारी मूल्यों और नैतिकता में गहरी आस्था है। हम सबसे बात करते हैं, एक-दूसरे पर विश्वास बढ़ाने के कदम उठाते हैं, हम कई बातों पर सहमत होते हैं, लेकिन कई बातों पर हमारी असहमतियां भी होती हैं। और इस प्रक्रिया पर आपके स्थान, आपके हालात, आपके अनुभव के असर होते हैं। इसलिए, सबकुछ बहुत जटिल और भिन्न है। वो कहते हैं, ‘इसलिए आज यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम दुनिया की इन सारी जटिलताओं को नजरअंदाज करते हुए तय कर दें कि यह अच्छा है और यह बुरा। मुझे लगता है कि इसका जमाना चला गया है।’ नया भारत ‘अंगद’ है जिसके पांव मजबूती से टिके हैंतो नए के मूल में ‘अप्प दीपो भव (अपना प्रकाश स्वयं बनो)’ का मंत्र है तो बदलते वर्ल्ड ऑर्डर में खुद के पांव उस जगह जमा लेने का भी कि श्रेष्ठता भाव से लबरेज पश्चिमी दुनिया की नींद खुले तो वो हमारी पहचान रामायण के ‘अंगद’ के रूप में करे। विदेश नीति की सीरीज के अगले अध्याय में हम बात उन बिंदुओं की करेंगे जो मोदी सरकार की उपलब्धियों का साफ-साफ खाका खींच देंगे।