
लालू को शरद का सपोर्ट
सामाजिक बदलाव के लिए सत्ता जरूरी है, इसे मानते हुए शरद यादव ने 1989 में लालू को गद्दी तक पहुंचाने में जी जान लगा दी। जब मांडू के राजा और पीएम वीपी सिंह ने रामसुंदर दास को सीएम बनाने के लिए जॉर्ज फर्नांडिस और सुरेंद्र मोहन को पटना भेज दिया तब हरियाणा के ताऊ देवीलाल ने मुलायम सिंह यादव और शरद यादव को पटना भेजा। टास्क था तीसरे यादव यानी लालू को विधायक दल का नेता बनवाना। तब लालू ने चंद्रशेखर और नीतीश को भी अपने पाले में ले लिया। वही सीएम बने। फिर लालू ने जब समाजवाद को भ्रष्टाचार से सींचना शुरू किया तो शरद और नीतीश ने मोर्चा खोला। जेडीयू के संस्थापक अध्यक्ष शरद यादव ने नीतीश को सीएम की कुर्सी पर बिठाने के लिए लालू को उनके घर में घुस कर मात दी। तब एक नारा गजब चर्चित था -जब तक रहेगा समोसे में आलू , तब तक रहेगा बिहार में लालू। इस मिथक को शरद ने 1999 में तोड़ दिया। रोम में पोप और मधेपुरा में गोप का नारा देने वाले लालू को शरद ने वहीं से पटखनी दे दी। ये जीत1995 के विधानसभा चुनाव में मिली मात के बाद राजनीति से संन्यास लेने की सोच रहे नीतीश के लिए बूस्टर डोज की तरह थी।
नीतीश के लिए लालू को हराया
इसी बूस्टर डोज के बाद नीतीश बिहार की राजनीति में चमकते गए। उधर शरद यादव अटल जी की कैबिनेट में शामिल हुए पर दिल्ली में एनडीए का संयोजक रहते हुए नीतीश का हाथ मजबूत करते रहे। 2005 में हुए दूसरे चुनाव में नीतीश बिहार की कुर्सी पर काबिज हो ही गए। तब शरद यादव राज्यसभा में थे क्योंकि 2004 का चुनाव वो हार गए थे। 2009 में वो फिर लालू को हराकर लोकसभा पहुंचे लेकिन इस बीच कभी कुर्सी की चिंता उन्होंने नहीं की। नहीं तो वो बिहार में भी मंत्री बन सकते थे। इसी चुनाव में खांटी समाजवादी जॉर्ज का टिकट नीतीश ने काट दिया। निर्दलीय लड़े लेकिन हार गए। अगर नीतीश ने टिकट दिया होता तो अटलजी और कमलनाथ के बाद दस बार लोकसभा पहुंचने वाले नेता बन जाते। शरद आहत थे लेकिन नीतीश को नेता मान चुप रहे। इस बीच यूपीए की सरकार पर उन्होंने जबर्दस्त दबाव डाला जिसके चलते 2011 में सामाजिक-आर्थिक जनगणना हुई जिसकी रिपोर्ट कभी सामने आई ही नहीं। आज अगर नीतीश कुमार बिहार में जातीय जनगणना करा रहे हैं और मोदी की पॉप्युलारिटी में सेंध लगा ओबीसी चैंपियन बनना चाहते हैं तो उसकी बुनियाद भी शरद यादव ने रखी थी।
नीतीश ने किया जॉर्ज वाला हाल
जब मोदी विरोध के नाम पर नीतीश 2013 में भाजपा से अलग हुए तो शरद यादव ने उनका पूरा साथ दिया। शरद वैचारिक तौर पर बिखरे हुए जनता परिवार को भी जोड़ना चाहते थे। लालू के साथ नीतीश को लाकर 2015 में बिहार जीतने से उनका हौसला और बढ़ा। उन्होंने मुलायम समेत बाकी राज्यों में जनता दल से निकलकर बनी पार्टियों को एकजुट करने की कोशिश की जो परवान नहीं चढ़ पाई। इसी बीच नीतीश ने लालू को छोड़ कर 2017 में भाजपा से हाथ मिला लिया। शरद यादव में नीतीश जैसी हिम्मत नहीं थी। अंदर का समाजवाद शायद बचा था। उन्होंने इसका विरोध किया। फिर तय था कि उनका हश्र भी जॉर्ज वाला ही होना है। नीतीश ने पहले उन्हें राज्यसभा में नेता पद से हटाया, फिर राज्यसभा की सदस्या से अयोग्य साबित करा दिया। जब शरद सुप्रीम कोर्ट गए तो नीतीश ने उनके पीछे रामचंद्र प्रसाद सिंह यानी आरसीपी सिंह को लगा दिया। शरद हार गए। आरसीपी उनकी जगह राज्यसभा में नेता बनाए गए। और फिर नीतीश ने आरसीपी के साथ क्या किया ये भी आपको मालूम है।
बेरहम निकले नीतीश
राज्यसभा की सदस्यता जाने के बाद शरद यादव बहुत आहत हुए। अलग पार्टी बनाई। उन्होंने तीन साल तक पटना का रुख नहीं किया। 2020 में पटना आए तो पुराने साथी लालू से मिले। फिर अपनी पार्टी का विलय आरजेडी में कर दिया। 1974 में जबलपुर उपचुनाव जीत कर इंदिरा की नींद हराम करने वाले शरद की पहचान दिल्ली में सात तुगलक रोड से भी होती थी। ये 22 साल से उनका आशियाना था। पर निर्मम नीतीश ने उसे भी खाली कराने ठान ली। जब इस घर से निकले तो कहा – मकान बदलने से राजनीति नहीं बदलेगी। अगर लालू यादव चाहते तो राज्यसभा भेज सकते थे। लेकिन उच्च सदन का टिकट कैसे तय होता है ये हम सब जानते हैं। उनकी लिस्ट में शरद के लिए जगह नहीं थी। शरद यादव चुपचाप अपनी बेटी के घर रहने छतरपुर चले गए। एक बात जो फिर दोहराना चाहूंगा वो ये कि लालू ने अपनी राजनीति भाजपा विरोध के नाम पर की तो ताल ठोक कर की। कभी समझौता नहीं किया। लेकिन नीतीश ने तमाम सिद्धांतों को तिलांजलि दे दी। इधर-उधर करते हुए आज वो फिर उसी लालू की पार्टी के साथ राज चला रहे हैं। वो सतीश कुमार, जॉर्ज, अली अनवर, शरद, आरसीपी के बाद अगले शिकार की तलाश में है जो पार्टी में खिलाफ मन बना रहा है। वो कौन है वो भी आप समझ सकते हैं। इसका ऐलान जल्दी ही हो सकता है।