क्या सच में विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A से घबराकर मोदी सरकार ने छोड़ा एक देश एक चुनाव का शिगूफा?

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने ‘एक देश एक चुनाव’ की दिशा में पहल कर दी तो अलग-अलग खेमों से तरह-तरह की आवाजें उठने लगी हैं। मोदी सरकार की करीब-करीब हर पहल में खोंट देखने वाले ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के पीछे की मंशा पर सवाल उठा रहे हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि मोदी सरकार ने अचानक यह ‘शिगूफा’ इसलिए छोड़ा है क्योंकि वो नए गठबंधन I.N.D.I.A के बैनर तले विपक्ष की एकजुटता से घबरा गई है। हालांकि, सच्चाई यह है कि नरेंद्र मोदी वर्ष 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनावों का प्रस्ताव करते आए हैं। तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी पीएम के इस प्रस्ताव पर सहमति जताई थी। उसके बाद से इस दिशा में कुछ न कुछ पहल हो रही रही है। इसलिए यह कहना कि की बात अचानक की गई है, यह पहली नजर में गलत जान पड़ती है। खैर, आइए जानते हैं कि देश में एक देश एक चुनाव का इतिहास क्या है। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब ‘एक देश एक चुनाव’ के विचार को अपना समर्थन दिया तब से विभिन्न पक्षों ने इसकी समीक्षा की है, जिसमें विधि आयोग नीति आयोग, चुनाव आयोग और विधि और न्याय पर संसद की स्थायी समिति शामिल है। सभी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा का समर्थन किया है, इस बात से सहमत हुए हैं कि लगातार चुनाव से सालोंभर कहीं-ना-कहीं आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू रहती है जिससे सरकारी योजनाएं प्रभावित होती हैं। दूसरी तरफ, लगातार चुनाव से देश का बहुत सारा धन खर्च होता है। अन्य चिंताओं में कम-से-कम पांच संवैधानिक संशोधनों को पारित करने की आवश्यकता, संसदीय और राज्य चुनाव कार्यक्रमों में सामंजस्य बिठाने की कठिनाई और अतिरिक्त ईवीएम, धन और जनशक्ति जैसे रसद की व्यवस्था शामिल है।➤ यह जानना जरूरी है कि वर्ष 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते थे, लेकिन 1968 और 1969 में कुछ राज्य विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने और कांग्रेस के टूट जाने के बाद 1971 में संसदीय चुनावों को आगे बढ़ा दिया गया। इस कारण यह सिलसिला टूट गया। संसदीय और राज्य चुनाव का चक्र, संसद और विधानसभाओं का समय से पहले विघटन, दलबदल, दलों में विभाजन और गठबंधन की राजनीति के कारण तेजी से बिगड़ गया।➤ 2014 से पहले ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा को 1982 में चुनाव आयोग, 1999 में जस्टिस बी.पी. जीवन रेड्डी के अधीन विधि आयोग, 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और 2010 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आगे बढ़ाया।➤ चुनाव आयोग के सूत्रों ने कहा कि उसे एक साथ चुनावों की योजना के लिए ‘पर्याप्त लीड टाइम’ की जरूरत होगी। लीड टाइम महीनों का हो सकता है क्योंकि अतिरिक्त ईवीएम और वीवीपैट को खरीदाना होगा और हर 15 साल में बदलना होगा।➤ न्यायमूर्ति बी.एस. चौहान के नेतृत्व में विधि आयोग ने अपनी 2018 में पेश अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में एक साथ चुनावों का समर्थन किया था, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि यह संविधान के मौजूदा ढांचे में संभव नहीं है।➤ यह बताया गया कि संविधान के ‘कम से कम’ पांच अनुच्छेदों (अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356) में संशोधन करना पड़ेगा। इसके अलावा, संशोधनों को कम-से-कम 50% राज्यों का अनुमोदन चाहिए होगा।एक देश एक चुनाव के पक्ष और विपक्ष में दलीलेंपक्षविरोधएक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं को केवल एक बार मतदान करना होगा, जिससे चुनाव की लागत कम होगी।एक साथ चुनाव कराने से चुनावी प्रक्रिया अधिक जटिल और महंगी हो सकती है।एक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं को एक ही समय में सभी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों का मूल्यांकन करने में मदद मिलेगी।एक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं पर अधिक दबाव पड़ सकता है, और यह उन्हें मुद्दों पर विचार करने के लिए पर्याप्त समय नहीं दे सकता है।एक साथ चुनाव कराने से चुनावी प्रक्रिया अधिक कुशल और पारदर्शी बन जाएगी।एक ही समय पर चुनाव होने से स्थानीय मुद्दों की अहमियत कम हो सकती है, और राष्ट्रीय मुद्दे अधिक प्रमुख हो सकते हैं।एक साथ चुनाव कराने से यह संभव हो जाता है कि एक ही पार्टी या गठबंधन दोनों स्तरों पर सत्ता में आ जाए, जिससे लोकतांत्रिक विविधता को खतरा हो सकता है।यदि किसी राज्य में सरकार गिरती है, तो उसके लिए अलग चुनाव आयोजित करना पड़ सकता है, जो इस विचार के प्रतिकूल है।सरकारें चुनावी दबाव से मुक्त होती हैं, और वे अधिक समय तक विकास नीतियों पर ध्यान केंद्रित कर सकती हैं।एक ही समय पर बड़े पैमाने पर चुनाव होने से चुनावी उपकरण पर अधिक दबाव पड़ सकता है।एक ही समय पर चुनाव होने से चुनावी विवादों की संख्या में कमी हो सकती है।एकसाथ चुनाव से राष्ट्रीय स्तर पर जिस पार्टी के पक्ष में हवा होगी, राज्यों में भी उसी को लाभ मिल सकता हैसंसद की स्थायी समिति की 2015 की सिफारिशेंदो चरणों में हो चुनाव: कुछ विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ हो सकते हैं और शेष विधानसभाओं के चुनाव तब हों जब लोकसभा चुनाव के 2.5 वर्ष हो जाएं।उपचुनावों के शेड्यूल: एक वर्ष में रिक्त होने वाली सभी सीटों के उपचुनाव एक पूर्व निर्धारित अवधि के दौरान एक साथ आयोजित किए जा सकते हैं।चुनाव आयोग के सुझाव➤ जब किसी सरकार के खिलाफ ‘अविश्वास प्रस्ताव’ लाया जाए, तभी नया प्रधानमंत्री कौन होगा और उसके समर्थन में कितने सांसद हैं इसका भी प्रस्ताव यानी ‘विश्वास प्रस्ताव’ भी लाया जाए। दोनों प्रस्तावों पर एक साथ वोटिंग हो। ➤ दोनों प्रस्तावों पर साथ-साथ वोटिंग के बावजूद अगर ऐसी लोकसभा के विघटन की परिस्थिति पैदा हो तो निम्नलिखित विकल्पों पर विचार किया जा सकता है…➤ यदि लोकसभा का शेष कार्यकाल लंबा नहीं है तो राष्ट्रपति अपने द्वारा नियुक्त मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर अगले सदन के गठन तक को देश का शासन संभालेंगे। शेष कार्यकाल कितना बचा हो जिसमें चुनाव की जगह राष्ट्रपति के हाथों देश का शासन सौंपा जाए, इसका निर्धारण किया जाना चाहिए।➤ अगर तय समय से ज्यादा का कार्यकाल बचा हो तो नए चुनाव हो सकते हैं। तब नई लोकसभा का कार्यकाल शेष अवधि तक ही होगा, न कि पूरे पांच वर्ष।विधि आयोग की 2018 की ड्राफ्ट रिपोर्ट➤ कुछ राज्यों में चुनाव को आगे बढ़ा दिया जाए, ताकि सभी विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ हो सकें। विधानसभा चुनावों को दो चरणों में करवाया जा सकता है- पहला लोकसभा चुनावों के साथ और दूसरा लोकसभा कार्यकाल के बीच में। इसके लिए कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल कम या ज्यादा करना पड़े तो किया जाए।➤ एक कैलेंडर वर्ष में होने वाले सभी चुनाव एक साथ किए जा सकते हैं। ऐसे चुनाव का समय सभी संबंधित राज्य विधायिकाओं और लोकसभा (यदि पहले भंग कर दिया गया है) के अनुकूल होना चाहिए।