झारखंड उपचुनाव में सत्ताधारी गठबंंधन को झटका! आजसू ने कांग्रेस से छीन ली अपनी परंपरागत सीट

रांची: रामगढ़ विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजे साबित करते हैं कि साझा प्रयास से सफलता संभव है। झारखंड में बीजेपी और आजसू पार्टी की उम्मीदवार सुनीता चौधरी ने 2019 में कांग्रेस की जीती हुई इस सीट पर अपना परचम लहरा दिया है। 2014 में इस सीट से बीजेपी और आजसू ने अपने-अपने उम्मीदवार उतार दिये थे। नतीजतन आजसू की पारंपरिक सीट कांग्रेस की झोली में चली गयी थी। हालांकि झारखंड में झामुमो, कांग्रेस, आरजेडी को लेकर बने गठबंधन ने भी अपना साझा उम्मीदवार उतारा था, लेकिन कामयाबी एनडीए को मिली। आजसू की सुनीता चौधरी जीत गईं। एनडीए की इस कामयाबी के जो दो कारण पहली नजर में दिखते हैं, वे हैं सुनीता का साझा प्रत्याशी होना और आजसू की परंपरागत सीट रहना। इस सीट से आजसू के चंद्रप्रकाश चौधरी जीतते रहे हैं, जो अभी गिरिडीह से सांसद हैं। सुनीता चौधरी उनकी पत्नी हैं। उन्होंने सत्ताधारी गठबंधन को झटका दे दिया है।आजसू पार्टी की परंपरागत सीट रही है रामगढ़ अतीत पर नजर डालें तो बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद पहली बार 2005 में विधानसभा के चुनाव हुए थे। तब आजसू पार्टी के ही चंद्र प्रकाश चौधरी विजयी हुए थे। उनकी जीत का सिलसिला तब से 2014 तक कायम रहा। 2019 में चंद्रप्रकाश चौधरी ने गिरिडीह से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत गये। उन्होंने अपनी पत्नी सुनीता चौधरी को 2019 में रामगढ़ सीट से उत्तराधिकारी बनाया, लेकिन कांग्रेस की ममता देवी से वह हार गयीं। एक टर्म के गैप के बाद यह सीट फिर आजसू पार्टी के पास आ गयी है।2019 में आजसू पार्टी-बीजेपी अलग-अलग लड़ींममता देवी को 44.70 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन मिला था, जबकि बीजेपी उम्मीदवार को 14.26 और आजसू को 31.86 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार बीजेपी का समर्थन भी आजसू उम्मीदवार को था। जिसकी वजह से कामयाबी पहले से ही पक्की मानी जा रही थी। यानी एनडीए का साझा प्रयास और आजसू की परंपरागत सीट होना सुनीता चौधरी की कामयाबी के सबसे बड़े कारक बने हैं। बीजेपी के लिए यह स्पष्ट संकेत है कि अपने भरोसेमंद साथी को दरकिनार करना उसके हक में नहीं। जीत पर बीजेपी को अधिक इतराने की जरूरत भी नहीं। इसलिए कि उसकी भूमिका से अधिक कहीं इस सीट का आजसू का परंपरागत होना है।नतीजे पूर्ण चुनाव के संकेतक नहीं होते एनडीए प्रतियाशी की कामयाबी से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि जेएमएम की अगुवाई वाला गठबंधन कमजोर हो गया है। ऐसा कहने के वाजिब कारण हैं। अतीत के अनुभव यही बताते हैं कि कोई उपचुनाव किसी पूर्ण चुनाव का संकेतक नहीं होता। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार सुरेंद्र किशोर बिहार का उदाहरण देते हुए कहते हैं- सितंबर 2009 में बिहार में 18 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव हुए थे। इनमें 13 सीटों पर सत्ताधारी राजग (एनडीए) हार गया था। जब 2010 में विधानसभा का आम चुनाव हुआ तो राजग को भारी बहुमत मिला।आजसू पार्टी से बेहतर तालमेल रखे बीजेपी यह बात जरूर है कि सत्ता में रहने वाले दल को थोड़ा-बहुत एंटी इन्कम्बैंसी का सामना तो करना ही पड़ता है। झामुमो वाले गठबंधन के उम्मीदवार को भी यकीनन इसका सामना करना पड़ा होगा। लेकिन इसे अगले साल होने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनाव का संकेतक मानना उचित और अतीत के अनुभव के अनुकूल नहीं होगा। सीधे शब्दों में कहें तो इस जीत से बीजेपी को अधिक इतराने की जरूरत नहीं। विधानसभा का पूर्ण चुनाव जीतने के लिए बीजेपी को अपने साथी दल के साथ बेहतर तौलमेल और कुशल रणनीति की जरूरत है।सीएम हेमंत सोरेन से वोटरों की नाराजगी भी कारण जहां तक एंटी इन्कम्बैंसी का सवाल है तो झामुमो नीत गठबंधन की सरकार के सीएम हेमंत सोरेन से लोगों की नाराजगी स्वाभाविक है। हेमंत ने अब तक झारखंड वासियों को जिस तरह का लालीपॉप दिखाया है, उसमें यह स्वाभाविक है। हेमंत ने नियोजन नीति लागू की और ढिढोरा पीटा कि झारखंडियों के लिए बड़ा काम कर दिया। नियोजन नीति विसंगतियों के कारण हाईकोर्ट में रद्द हो गयी। इसी तरह उन्होंने स्थानीयता नीति तामझाम के साथ घोषित की। राज्यपाल ने खामियां गिनाते हुए इसे वापस कर दिया। हेमंत सोरेन को भी पता था कि ऐसी नीतियों का लागू हो पाना असंभव है। स्थानीयता नीति में 1932 को आधार बनाने की बात पहले खुद उन्होंने ही खारिज कर दी थी, पर बाद में उसे ही लागू किया। इससे झारखंड की जनता भी समझ गयी कि सरकार सिर्फ अपने लाभ के लिए लोगों को बेवकूफ बना रही है। इसलिए यह मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि सरकार की की चालाकियों से जनता खुश नहीं है। रिपोर्ट-ओमप्रकाश अश्क