दिल तो जीतते रहते हैं, आखिर चुनाव कब जीतेंगे चंद्रशेखर आजाद

लखनऊ: हाल ही में आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के अध्‍यक्ष () चर्चा में थे। चर्चा में तो वह अकसर रहते ही हैं लेकिन इस पर उन पर एक जानलेवा हमला हुआ था। हमले में वह बाल-बाल बचे। इसके बाद उन्‍होंने अस्‍पताल से अपने समर्थकों से अपील की कि वे शांत‍ि बनाए रखें। अस्‍पताल से डिस्‍चार्ज होने के बाद वह जब बाहर आए तो खुद पर हमला करने वालों के खिलाफ गुस्‍से से भरे नहीं थे। वह शांत थे। उन्‍होंने कहा, मैं उन लोगों से मिलना चाहता हूं जो मेरी जान लेना चाहते थे। जानना चाहता हूं कि उन्‍होंने ऐसा क्‍यों किया। इसी दौरान जब उनसे पूछा गया कि लगभग सभी गैरबीजेपी दलों के नेताओं ने उनका हाल पूछा लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती ने जिक्र तक नहीं किया। आजाद ने नरम आवाज में कहा, जरूरी नहीं कि मां बोल कर ही अपना प्‍यार जताए। वह (मायावती) मुझे बहुत प्‍यार करती हैं।’ अगले दिन ही आजाद एंबुलेंस में राजस्‍थान में अपने कार्यक्रम के लिए निकल गए। वह यह नहीं दिखाना चाहते थे कि वह कमजोर हैं। लेकिन उन्‍हें नजदीक से जानने वाले कहते हैं कि वह इसी तरह मीडिया में छाए रहना पसंद करते हैं। यह चंद्रशेखर का स्‍टाइल है। आज चंद्रशेखर पूरे देश में नहीं तो कम से कम उत्‍तर भारत में युवा दलित शक्ति का चेहरा माने जाते हैं। पोस्‍टर बॉय जैसे। उनका डेब्‍यू भी वैसा ही हुआ। आजाद सहारपुर के घडकौली गांव के रहने वाले हैं। उनके पिता गवर्नमेंट कॉलेज के प्रिंस‍िपल थे। कहा जाता है कि आजाद ने घडकौली में दलित बच्‍चों की शिक्षा के लिए काम किया। लेकिन सही मायनों में चर्चा में तब आए जब साल 2016 के आसपास अपने गांव के बाहर उन्‍होंने बोर्ड लगाया, द ग्रेट चमार…। इस पर ऊंची जातियों से बवाल हुआ। मई 2017 में सहारनपुर के शब्‍बीरपुर गांव में दलित राजपूतों में बवाल के दौरान एक राजपूत की हत्‍या हो गई। इसके बाद दंगा भड़का और कई दलितों के घरों में आग लगाई गई। आजाद को इस पूरे मामले में आरोप बनाया गया। आजाद ने नाटकीय ढंग से दिल्‍ली में सरेंडर किया। उन पर एनएसए लगा, 15 महीने की जेल हुई। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी उनके समर्थन में आईं। उन्‍होंने मांग की कि आजाद को तिहाड़ की जगह एम्‍स में रखा जाए जहां उनका इलाज हो। सीएए विरोधी आंदोलनों में आजाद की लोकप्रियता चरम पर थी। उन्‍होंने विरोध प्रदर्शन का जामा मस्जिद के सामने नेतृत्‍व किया। राजनीतिक दलों को पता है कि एक दलित युवा की लोकप्र‍ियता का राजनीतिक मूल्‍य होता है। साल 2018 में चंद्रशेखर ने सपा और आरएलडी के उम्‍मीदवार का कैराना लोकसभा उप चुनाव औैर नूरपुर विधानसभा उप चुनाव में समर्थन किया। चंद्रशेखर में जेल के भीतर से संदेश भेजा और बीजेपी दोनों जगह हार गई। अब चंद्रशेखर को बीएसपी प्रमुख मायावती के विकल्‍प के तौर पर देखा जाने लगा। मायावती भी अब तक बहुत सक्रिया नहीं रह गईं थीं, यह भी एक वजह थी। चंद्रशेखर का जादू दिसंबर 2022 में फिर चला जब राष्‍ट्रीय लोकदल ने उनके समर्थन से खतौली विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी उम्‍मीदवार को हरा दिया। यहां तक तो ठीक है लेकिन जब साल 2022 का विधानसभा चुनाव था उस समय चंद्रशेखर आजाद की पार्टी अपने दम पर लड़ी लेकिन महज 559 वोट बटोर पाई। आजाद योगी आदित्‍यनाथ के खिलाफ खडे़ हुए लेकिन उनकी जमानत तक जब्‍त हो गई। वह बसपा, सपा के बाद चौथे नंबर पर आए। इसलिए इस समय चंद्रशेखर आजाद के तेवर तो भा रहे हैं लेकिन सवाल फिर वही है कि वह कब तक दूसरों को बंदूक दागने के लिए अपना कंधा पेश करते रहेंगे। या फिर दलितों के लिए उम्‍मीद की किरण बनकर महज किंग मेकर, डील ब्रेकर बनते रहेंगे?