आंखें निकालीं पर नहीं कबूला इस्लाम तो काटा सिर…शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी की हत्या से पहले औरंगजेब को किसका था मलाल

नई दिल्ली: ‘बादशाह औरंगजेब ने संभाजी महाराज को इस्लाम कबूलने का हुक्म दिया। इनकार करने पर उनको बुरी तरह पीटा गया। दोबारा पूछने पर भी संभाजी ने फिर इनकार कर दिया। इस बार उनकी ज़ुबान खींच ली गई। एक बार फिर से पूछा गया। तब संभाजी ने लिखने की सामग्री मंगवाई और लिखा-अगर बादशाह अपनी बेटी भी दे, तब भी नहीं करूंगा। इसके बाद उनको तड़पा-तड़पा कर मार डाला गया।’ के नायक छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी महाराज के त्रासद अंत की यह दुखद कहानी ब्रिटिश भारत में डेनिश किनकेड नाम के सिविल सेवक और इतिहासकार ने लिखी है। डेनिस ने ये बातें अपनी ‘शिवाजी: द ग्रैंड रिबेल’ नाम से एक चर्चित किताब में लिखी है। यह किताब सोलहवीं सदी के स्वराज्य के महाराज और भारत में ब्रिटिश सामाजिक जीवन, 1608-1937 तक के इतिहास और औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों का एक क्लासिक विवरण है। जानते हैं शिवाजी की जयंती के अवसर पर जानते हैं उनके बेटे और हिंदवी स्वराज्य के दूसरे छत्रपति संभाजी महाराज की वो अनकही कहानी। इन दिनों बॉलीवुड फिल्म छावा भी काफी चर्चा में है।क्या हुआ था उस दिन, ऐसी यातना कि रूह कांप उठेकिताब के अनुसार, इस्लाम कबूलने से इनकार करने के बाद संभाजी राजे और उनके कवि व दोस्त कलश को जोकरों वाली पोशाक पहना कर पूरे शहरभर में परेड कराई गई। पूरे रास्ते उन पर पत्थरों की बरसात की गई। भाले चुभाए गए। उसके बाद उन्हें फिर से इस्लाम कबूलने के लिए कहा गया। फिर से इनकार करने पर और ज़्यादा यातनाएं दी गई। दोनों कैदियों की ज़ुबान कटवा दी गई। आंखें और निकाल लिए गए। इसके बाद उनके एक-एक अंग को काटा गया और आखिर में शरीर के कई टुकड़े कर दिए गए। इसके बाद भी औरंगजेब का मन नहीं भरा तो उसने 11 मार्च, 1689 को संभाजी के सिर को कलम कर दिया। मगर औरंगजेब को इस बात का रहा हमेशा मलालमहाराष्ट्र में एक कहावत बेहद चर्चित है। कहा जाता है कि औरंगजेब ने संभाजी राजे की हत्या करने से ठीक पहले उनसे कहा था कि कि मेरे चार बेटों में से अगर एक भी तुम्हारे जैसा होता, तो पूरा हिंदुस्तान कब का मुगल सल्तनत में समा चुका होता। दरअसल, औरंगजेब के चारों बेटे योग्य नहीं थे। बताया जाता है कि संभाजी के शव के टुकड़े तुलापुर की नदी में फेंक दिए गए थे, जहां से निकालकर कुछ लोगों ने उनका अंतिम संस्कार किया था। संभाजी की शहादत से लगा मुगलों को ‘श्राप’संभाजी की मृत्यु के बाद मराठों ने एकजुट होकर मुगलों को हराया और औरंगजेब की सत्ता समाप्त कर दी। 1681 में जब औरंगजेब का चौथा बेटा-मोहम्मद अकबर जब बगावत कर दक्खन में ही कुछ बागी सैनिकों को लेकर अलग हो गया तो औरंगजेब ने उसका पीछा किया और बागी सैनिकों को बुरी तरह परास्त कर दिया। अकबर ने तब संभाजी की शरण ली। संभाजी महाराज ने अकबर की बहन जीनत को एक चिट्ठी लिखी। औरंगजेब तक वह पत्र पहुंचा। दिल्ली लौट जाएं, वर्ना दक्खन में ही बनेगी आपकी कब्रपत्र में लिखा था-बादशाह सलामत को दिल्ली लौट जाना चाहिए। एक बार हम और हमारे पिता उनके कब्जे से छूटकर दिखा चुके हैं। अगर वो जिद पर अड़े रहे तो वो हमारे कब्जे से छूटकर दिल्ली नहीं जा पाएंगे। उनकी यही इच्छा है तो उन्हें दक्खन में ही अपनी कब्र के लिए जगह खोज लेनी चाहिए। संभाजी ने औरंगजेब को दक्खन से लौट जाने या दक्खन में ही अपनी कब्र की तैयारी करने से जुड़ी जो श्राप दिया था, वह आखिर में सही साबित हुई। मुगल शासक आखिरी समय तक दक्खन पर कब्जा नहीं कर पाए और औरंगजेब 88 साल की उम्र में दक्खन में ही दफन हुआ।एक धोखे से औरंगजेब के चंगुल में फंसे संभाजी’मेमोरेस डी फ्रैंकोइस मार्टिन फोंड’ में मार्टिन ने लिखा है कि 1689 की शुरुआत में संभाजी महाराज ने अपने महत्वपूर्ण प्रमुखों को कोंकण के संगमेश्वर में एक बैठक में शामिल होने के लिए बुलाया। 1 फरवरी, 1689 में जब संभाजी महाराज बैठक समाप्त करके रायगढ़ के लिए कूच कर रहे थे, तब औरंगजेब के सरदार मुकर्रब खान ने महाराज की सहायता से संगमेश्वर पर हमला कर दिया। फ्रांसीसी गवर्नर जनरल मार्टिन ने अपनी डायरी में लिखा है कि उनके करीबी लोगों ने उन्हें धोखा दिया। ऑपरेशन गुप्त रूप से किया गया था और सभी ऑपरेशनों की योजना बहुत सावधानी से बनाई गई थी। मराठों और शत्रु सेना के बीच संघर्ष छिड़ गया। मराठों की संख्या कम हो गई। अपने बेहतरीन प्रयासों के बावजूद मराठा दुश्मन के हमले को पीछे हटाने में असमर्थ रहे। दुश्मनों ने संभाजी महाराज और उनके साथ मौजूद कवि कलश को जिंदा पकड़ लिया। जब संभाजी के साथी कवि कलश की काटी जुबान1689 में मुगलों ने संभाजी महाराज को धोखे से बंदी बना लिया और उन्हें औरंगजेब के समक्ष पेश किया गया। मुगल सरदार मुकर्रब खान ने संभाजी के सभी सरदारों को मार डाला संभाजी को उनके सलाहकार कवि कलश के साथ बहादुरगढ़ ले जाया गया था। संभाजी को देखकर औरंगजेब को यकीन ही नहीं हुआ, और वो जमीन पर बैठकर अपने अल्लाह को याद करने लगा। जैसे ही वो बैठा कवि कलश ने कहा-“जो रवि छवि लछत ही खद्योत होत बदरंग,त्यो तूव तेज निहारी ते तखत तज्यो अवरंग।। ”इसका मतलब यह है कि जिस तरह सूरज के प्रकाश को देखकर जुगनू का प्रकाश नष्ट हो जाता है, उसी तरह से यह राजा अपना सिंहासन छोड़ कर तुम्हारे समक्ष आया है। इस दोहे का यह मतलब जानकर औरंगजेब आगबबूला हो गया उसने आदेश दिया कि कवि कलश की जुबान काट दो। उसने उसी वक्त संभाजी के सामने प्रस्ताव रखा कि वह सारे किले मुगलों को सौंप कर इस्लाम धर्म कबूल कर लें। इससे उनकी जान बख्श दी जाएगी। मगर, संभाजी ने इनकार कर मरना स्वीकार किया।संभाजी महाराज दूसरे मराठा छत्रपतिअब थोड़ा पीछे चलते हैं। संभाजी की शुरुआती जिंदगी की कहानी जानते हैं। दरअसल, छत्रपति संभाजीराजे शिवाजीराजे भोसले ( 14 मई 1657 – 11 मार्च 1689 ) छत्रपति शिवाजी महाराज और महारानी सईबाई के सबसे बड़े पुत्र और मराठा साम्राज्य के दूसरे छत्रपति थे। संभाजी महाराज का जन्म पुरंदर किले में हुआ था। एक राजकुमार होने के नाते उन्हें छोटी उम्र से ही युद्ध अभियानों और राजनीतिक चालों का अनुभव प्राप्त हो गया था। संभाजी महाराज की देखभाल उनकी दादी राजमाता जीजाबाई ने की थी। उनकी सौतेली मां पुतलाबाई भी उनसे बहुत प्यार करती थीं। हालांकि, उनकी सौतेली मां सोयराबाई ने संभाजी महाराज के राजनीतिक जीवन में कई बार दखल दिया।9 साल की उम्र में शेर के बच्चे ने औरंगजेब को छकायाकई ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार, संभाजी महाराज बेदह सुंदर और बहादुर थे। वे कई भाषाओं के विद्वान और बहुत चतुर राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने राजनीति की बारीकियों को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। जब वो 9 साल के थे, तब शिवाजी महाराज उन्हें अपने साथ आगरा की यात्रा पर ले गए। उनकी यह सोच थी कि यदि वह छोटी उम्र में मुगल दरबार की घटनाओं और राजनीति के बारे में जान लेंगे, तो वह भविष्य में उनके लिए उपयोगी साबित होगा। औरंगजेब के इशारे पर जब शिवाजी और संभाजी को कैद करने की कोशिश की गई तो शिवाजी और संभाजी फलों की टोकरी में वहां से भाग निकले।मथुरा में पेशवा के साले के यहां रखा, मरने की अफवाह फैलाईशिवाजी महाराज ने यह सोचा कि संभाजी को कुछ समय के लिए सुरक्षित स्थान पर रखा जाना जरूरी था। इसलिए शिवाजी महाराज ने उन्हें मथुरा में पेशवा के साले मोरोपंत के घर रखा। मुगल सैनिकों को संभाजी राजे का पीछा करने से रोकने के लिए शिवाजी महाराज ने अफवाह फैला दी कि संभाजी राजे की मृत्यु हो गई है। महाराष्ट्र पहुंचने के कुछ समय बाद संभाजी महाराज सुरक्षित रूप से स्वराज्य में आ गए।एक छोटे से किले को जीतने में औरंगजेब के छूटे पसीनेऔरंगजेब ने 1682 में मराठों पर हमला किया। औरंगजेब की सेना मराठा सेना से पांच गुना बड़ी थी, जबकि औरंगजेब का साम्राज्य संभाजी महाराज के स्वराज्य से कम से कम 15 गुना बड़ा था। औरंगजेब की सेना उस समय दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेनाओं में से एक थी। फिर भी, मराठों ने संभाजी महाराज के नेतृत्व में बहादुरी से लड़ाई लड़ी। नासिक के निकट रामशेज किले के युद्ध से औरंगजेब परेशान रहा। औरंगजेब के सेनापतियों को उम्मीद थी कि किला कुछ ही घंटों में आत्मसमर्पण कर देगा। लेकिन मराठों ने इतना कड़ा प्रतिरोध किया कि उन्हें किला जीतने के लिए साढ़े छह साल तक संघर्ष करना पड़ा। जब संभाजी ने दुश्मनों को पस्त कर दियासंभाजी महाराज ने अपने शत्रुओं गोवा के पुर्तगालियों , जंजीरा के सिद्दी और मैसूर के चिक्कदेव राय को इतना कड़ा सबक सिखाया कि वे संभाजी महाराज के विरुद्ध औरंगजेब की सहायता करने का साहस नहीं कर सके। न ही उनमें से कोई भी उनके खिलाफ जा सकता था। संभाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों ने अकेले ही सभी दुश्मनों से लड़ाई लड़ी।कैसे काम करती थी संभाजी की गुरिल्ला आर्मीकिताब ‘द ग्रैंड रिबेल’ में लेखक डेनिस किनकैड के अनुसार, गुरिल्ला आर्मी तेजी से चलने और अचानक हमला करने में माहिर थी। वे छोटी-छोटी बटालियनों में जमीनी जंग में मुगल सेना पर हमला करते और फौरन पहाड़ों में वापस लौट जाते और छिप जाते। रात के समय छिपकर हमला करना भी इन योद्धाओं की एक खासियत थी। शिवाजी की सेना में उस वक्त तक तोपखाना नहीं था, इसलिए ये योद्धा तलवारबाजी और छोटे हथियारों का इस्तेमाल करते थे। गुरिल्ला युद्ध शैली से त्रस्त होकर मुगल सेना पूरी तरह से असहाय हो गई। इसमें स्थानीय कबायली मुसलमान और पठान भी शामिल थे, जो बेहद लड़ाकू हुआ करते थे। ये आर्मी सिंधुदुर्ग और विजयदुर्ग जैसे समुद्री किलों में हमेशा मुस्तैद रहती थी। शिवाजी के जहाजी बेड़े को संभाजी ने भी आगे बढ़ायाब्रिटिश भारत के एक इतिहासकार कैप्टन ग्रांट डफ ने अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ मराठा’ में लिखा है कि शिवाजी महाराज और उनके बाद संभाजी महाराज ने अपनी नौसेना का इस्तेमाल मराठा साम्राज्य को बढ़ाने में किया। उन्होंने उस दौर की नौसैनिक तकनीक अपनाने में कोई हिचक नहीं दिखाई। उनके जहाजी बेड़े उन्नत नेविगेशन सिस्टम और तोपखाने से लैस थे, जो उन्हें नौसैनिक लड़ाइयों में स्वराज्य को अजेय बनाते थे। उनका एक महत्वपूर्ण नौसैनिक संघर्ष कोंकण तट के पास जंजीरा द्वीप के सिद्दियों के खिलाफ था, जिन्हें अपनी नौसेना के दम पर उन्होंने पस्त कर दिया था।