कांग्रेस पार्टी के 85वें पूर्ण अधिवेशन में 2024 लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकजुटता का मुद्दा जोर-शोर से उठा। छत्तीसगढ़ के रायपुर में देश की सबसे पुरानी पार्टी का सम्मेलन में आयोजित हुआ। इसमें कहा गया, ‘एनडीए से मुकाबले के लिए समान विचारों के आधार पर एकजुट विपक्ष की बहुत जरूरत है।’ अधिवेशन में इस संबंध में एक प्रस्ताव भी पारित किया गया। इसके अनुसार कांग्रेस पार्टी समान विचारधारा वाले धर्मनिरपेक्ष दलों के बीच सहमति बनाने की कोशिश करेगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी बन पाएगी? इससे भी बड़ा सवाल है कि अगर कांग्रेस इस मकसद में कामयाब हो भी गई तो क्या विपक्षी गठबंधन इतना ताकतवर हो पाएगा कि वह बीजेपी नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) का मुकाबला कर ले? पॉलिटिकल रिसर्चर आसिम अली ने हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया (ToI) के लिए एक लेख लिखा है। अली ने इस लेख में इन सवालों के जवाब दिए हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने 2003 के शिमला अधिवेशन में भी ऐसा ही प्रस्ताव पास किया था। तब सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं। उन्होंने 2004 को लोकसभा चुनाव के लिए सहयोगियों को साथ लेने का अभियान छेड़ा। निश्चित तौर पर उस वर्ष कांग्रेस की जीत में गठबंधन की बड़ी भूमिका रही। हालांकि, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) चुनाव बाद अस्तित्व में आया, लेकिन चुनाव पूर्व उसके सहयोगी दलों की लिस्ट में पांच बड़े नाम जुड़ गए थे- एनसीपी, टीआरएस, डीएमके, जेएमएम और एलजेपी। इसका परिणाम यह हुआ कि इन पार्टियों के दबदबे वाले प्रदेशों क्रमशः महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, झारखंड और बिहार में गठबंधन को 114 सीटें मिल गईं। यूपीए के हिस्से आई कुल 2019 सीटों का यह 52 प्रतिशत था। तब कांग्रेस के उन नए गठबंधन दलों ने ही 46 सीटें जीत ली थीं। आसिम अली कहते हैं कि 2024 में 2004 का इतिहास नहीं दुहराया जा सकता है। वो इसके तीन गिनाते हैं। बीजेपी को नहीं रहा पाएगा कांग्रेस का महागठबंधन, ये हैं तीन कारणपहला- राष्ट्रीय स्तर पर दलगत राजनीति में बड़ा बदलाव आ चुका है। बीजेपी बहुत आगे निकल गई है और उसका दबदबा बहुत ज्यादा बढ़ गया है। 1989 से 2014 के बीच भारतीय लोकतंत्र गठबंधन के दौर से गुजरा। इस दौरान बीजेपी अपना जनाधार बढ़ाने में जुटी रही। पार्टी ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के सूत्र पर धीरे-धीरे अपना मजबूत वोट बैंक बना लिया। मतदाताओं पर बीजेपी की पकड़ को इस बात से आंका जा सकता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में मजबूत विरोधी गठबंधनों के बावजूद वह आगे निकल गई। बीजेपी के खिलाफ यूपी में बीएसपी और एसपी, कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस, झारखंड में कांग्रेस, जेएमएम और जेवीएम साथ आए थे। फिर भी बीजेपी ने 2014 से भी बड़ी जीत हासिल कर ली। उसे 43% लोकसभा सीटों पर बहुमत हासिल हुआ। इस चुनाव परिणाम ने अलग-अलग दलों के वोट प्रतिशत को मिलाकर आंकने का गणित ही बिगाड़ दिया। बीजेपी की बढ़ती ताकत का आकलन इंडेक्स ऑफ अपोजिशन यूनिटी (IOU) से भी लगाया जा सकता है। पॉलिटिकल साइंटिस्ट एडम जिगफेल्ड (Adam Ziegfeld) ने 2014 और 2019 के चुनावों में बीजेपी को विरोधी गठबंधन के प्रदर्शन के आधार पर सूचकांक तैयार किए। इसके मुताबिक, बीजेपी को 2014 के लोकसभा चुनाव में 64% आईओयू का सामना करना पड़ा। यही आंकड़ा 1947 से 1971 तक कांग्रेस के खिलाफ रहा था जब पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर दबदबा हुआ करता था। 2019 में तो बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकजुटता और भी मजबूत हुई और उसे 2014 के 64% के मुकाबले इस बार 85% आईओयू का सामना करना पड़ा। लेकिन हैरत की बात है कि बीजेपी को इसका नुकसान नहीं हुआ बल्कि पार्टी 2014 की 282 सीटों के मुकाबले 2019 में 303 सीटें जीत ले गई। दूसरा- बीजेपी विरोधी महागठबंधन खुद के लिए घातक साबित हो सकता है, अगर जनता के बीच पर्सेप्शन यह बन जाए कि ये सभी अवसरवादी दल अपने हितों के लिए एकजुट हुए हैं, इनका देशहित से कोई लेनादेना नहीं है। अगर मतदाताओं के मन में यह बात घर कर जाए कि गठबंधन दलों के पास कोई विजन नहीं है तो बड़े-बड़े गठबंधन भी चुनावों में धराशायी हो सकते हैं। दो राजनीति विज्ञानियों संदीप शास्त्री और वीणा देवी ने 2019 के लोकनीति एनईएस सर्वे डेटा के हवाले से दर्शाया है कि कैसे कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस के बीच तालमेल के अभाव से गठबंधन की चुनावी नैया डूब गई। सर्वे डेटा से पता चला कि ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस के साथ रहे दलितों के 40% मतदाता बीजेपी के पक्ष में चले गए। इसी तरह, हमेशा जेडीएस के साथ रहने वाले वोक्कालिगा वोटरों का 60% बीजेपी का समर्थक हो गया। उधर, यूपी में तो एसपी-बीएसपी के साथ आने से जाटव, यादव और मुस्लिम मतदाता एकजुट हो गए, लेकिन गैर-यादव मतदाताओं का भी बीजेपी के प्रति ध्रुवीकरण हो गया। इसका नतीजा हुआ कि बीजेपी 80 में से 62 सीटें जीत गई। तीसरा- किसी भी विरोधी दल के पास मोदी फैक्टर का कोई काट नहीं है। 1971 में जिस तरह इंदिरा गांधी के खिलाफ गोलबंदी विरोधियों को ही भारी पड़ गई, उसी तरह 2019 में मोदी विरोधी गठबंधन बैक फायर का शिकार हो गया। इसका बड़ा कारण यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपना एक अलग वोट बैंक बन गया है जो सिर्फ और सिर्फ उनके चेहरे पर वोट करता है। 2019 के लोकनीति सर्वे में एक तिहाई लोगों ने कहा था कि अगर मोदी पीएम का चेहरा नहीं होते तो उन्होंने बीजेपी को वोट नहीं किया होता। अटल-आडवाणी बनाम मोदी-शाह की बीजेपीकांग्रेस पार्टी 2004 के लोकसभा चुनाव में इसलिए नहीं जीत गई थी क्योंकि 2019 के मुकाबले तब उसका बड़ा गठबंधन था। 2004 में कांग्रेस पार्टी ने 414 लोकसभा सीटों पर अपने कैंडिडेट खड़े किए थे जबकि 2019 में वह 421 सीटों पर लड़ी। 2004 में कांग्रेस को सफलता इसलिए मिली थी क्योंकि तब कांग्रेस के सभी सहयोगी दलों का कुल मिलाकर एक ही राग था- गरीब बनाम अमीर। इसके अलावा, अब की मोदी सरकार के मुकाबले तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार काफी कमजोर थी। इसलिए अगर कांग्रेस पार्टी बहुत बड़ा गठबंधन बनाने में कामयाब भी हो गई तो अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों में वह बीजेपी को पछाड़ देगी, इसकी संभावना नहीं के बराबर ही है। उसे मोदी-शाह की बीजेपी से मुकाबला है, अटल-आडवाणी की पार्टी से नहीं।