टीचर को ‘जानेमन’ कहकर छेड़ते इन बच्चों को सिर्फ मत कोसिए, हम-आप ज्यादा दोषी हैं

नई दिल्‍ली: मेरठ में स्‍कूल की टीचर () के साथ जो हुआ वो शर्मिंदा करने वाला है। कभी जो लेडी टीचर ‘दीदी’ और ‘बहन-मां’ जैसी थीं उनका ‘जानेमन’ बन जाना चिंता और डर का विषय है। स्‍कूल जाने वाले ये स्‍टूडेंट भी हमारे और आपके घर के हैं और पढ़ाने वाली शिक्षिकाएं भी। जब स्‍कूली छात्र उन्‍हें ‘आई लव यू’ कहकर प्रपोज करने लगेंगे तो समझ लीजिए हमारे बच्‍चे किस दिशा में बढ़ रहे हैं। पढ़ने वाले किशोर हो रहे बच्‍चों को अगर क्‍लास में ‘मैं हूं न’ की ‘मिस चांदनी’ ही दिख रही हैं तो इसका कोई और कसूरवार नहीं है। इसके सिर्फ और सिर्फ हम ही जिम्‍मेदार हैं। ऐसे में टीचर को ‘जानेमन’ कहकर छेड़ते इन बच्चों को मत कोसिए। अगर शिक्षिका बच्‍चों के इस तरह के व्‍यवहार से स्‍कूल () जाने से डरने लगेगी तो यह किसी भी सभ्‍य समाज के लिए अच्‍छे संकेत नहीं हो सकते हैं। हमने कुछ सॉइकॉलजिस्‍ट से बात कर यह समझने की कोशिश की है कि बच्‍चों में इस तरह के बदलाव के पीछे क्‍या कारण हैं, इसे रोकने के लिए क्‍या किया जा सकता है, इसके ल‍िए जिम्‍मेदार कौन है?

मेरठ में जिस टीचर के साथ छेड़खानी हुई वह डिप्रेशन में हैं। इस मामले में टीचर ने तीन छात्रों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया है। शिक्षिका का आरोप है कि स्‍कूल में 12वीं के छात्र उन्‍हें काफी दिनों से परेशान कर रहे थे। क्‍लास में तो छेड़खानी करते ही थे, सड़क पर भी आते-जाते छेड़ते थे। अपशब्‍द भी बोलते थे। हद तब पार हो गई जब वो ‘आई लव यू’ तक बोलने लगे। इसके बाद सभी मर्यादाएं पार करके छेड़खानी करते हुए एक वीडियो भी वायरल कर दिया।

समस्‍या की क्‍या है जड़?
क्‍लीनिकल साइकॉलजिस्‍ट डॉ प्रीति शुक्‍ला कहती हैं कि इसके पीछे सोशल मीडिया और फिल्‍मों का जबर्दस्‍त इम्‍पैक्‍ट है। फिल्‍मों में इन दिनों टीचर को बिल्‍कुल अलग तरह से दिखाया जा रहा है। वो ग्‍लैमर और आईकैंडी की तरह पेश की जाती हैं। बच्‍चे रील और रियल लाइफ में अंतर नहीं कर पाते हैं। वो हर महिला टीचर को ‘मैं हूं न’ की ‘मिस चांदनी’ के साथ जोड़कर देखने लगते हैं।

इस उम्र के बदलाव को समझिए
प्रीति के मुताबिक, 10 से 16 साल की उम्र बहुत नाजुक होती है। बच्‍चे चाइल्‍डहुड से अडोलसेंट यानी किशोरावस्‍था की तरफ कदम बढ़ा रहे होते हैं। उनमें अपनी उम्र से बड़ा दिखने की चाहत भी हिलोरे मार रही होती है। कई बच्‍चे इसे दिखाने की कोशिश में भी इस तरह की हरकतें करते हैं। इसके अलावा स्‍कूल में आने वाले बच्‍चों का बैकग्राउंड भी काफी हद तक मायने रखता है। वह बहुत सारी चीजें अपने घर में सीखता है। फिर उन्‍हें स्‍कूल में रेप्लिकेट करता है।

हर बात में स्‍कूल को ब्‍लेम करना सही नहीं
काउंसलिंग साइकॉलजिस्‍ट डॉ अर्चना शर्मा की राय भी डॉ प्रीति शुक्‍ला से मिलती-जुलती है। वह कहती हैं कि इन दिनों पैरेंट्स बच्‍चों की हर बात का सपोर्ट करते हैं। हर चीज के लिए वो स्‍कूल को ब्‍लेम करते हैं। वो भूल जाते हैं कि बच्‍चा स्‍कूल में 7-8 घंटे रहता है। बाकी का समय वह घर में बिताता है। अर्चना मानती हैं कि अच्‍छा होम एनवॉयरमेंट बहुत जरूरी है। न्‍यूक्लियर फैमिलीज के कारण अब बच्‍चों की मॉनटरिंग वैसे नहीं हो पाती है जैसे ज्‍वाइंट फैमिलीज में होती थी। तब पैरेंट्स के अलावा वह दादा-दादी, चाचा-चादी या ताऊ-ताई की भी उतनी ही निगरानी में रहता था। इनके साथ रहते हुए वह कई अच्‍छी चीजें भी सीखता था। मसलन, रामायण-महाभारत की कहानियों के अलावा तमाम दूसरे नैतिक मूल्‍यों को सीखने के लिए उसे किसी सेशन की जरूरत नहीं होती थी।

डॉ अर्चना के अनुसार, पीयर प्रेशर के कारण भी बच्‍चे इस तरह की हरकतें करते हैं। वो साथ के दूसरे बच्‍चों पर इंप्रेशन बनाने के लिए ऐसा कर जाते हैं। इस तरह के आइडिया उन्‍हें सोशल मीडिया और अन्‍य माध्‍यम से मिलते हैं।

क्‍या है रोकथाम का रास्‍ता?
डॉ प्रीति और डॉ अर्चना दोनों इसकी रोकथाम के लिए रास्‍ता सुझाती हैं। उनके मुताबिक, स्‍कूल में बच्‍चे टीचर से छेड़खानी जैसी गंदी हरकतें नहीं करें, इसके लिए बच्‍चों को संस्कारित करना जरूरी है। यह काम सिर्फ स्‍कूल के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। घर में अभिभावकों की भी जिम्‍मेदारी है कि वो इस पर ध्‍यान दें। पहले इस तरह की घटनाएं इसीलिए आम नहीं थीं क्‍योंकि हर स्‍तर पर बच्‍चों को संस्‍कारित किया जाता था। प्रीति के मुताबिक, मॉरल एजुकेशन की भूमिका आज के समाज में बहुत ज्‍यादा बढ़ गई है। बच्‍चे बहुत ज्‍यादा एक्‍सपोज्‍ड हैं। उनके पास मोबाइल और अन्‍य गैजेट्स के जरिये हर तरह का कॉन्‍टेंट आ रहा है।

डॉ अर्चना कहती हैं कि ऐसी रोकथाम के लिए सभी स्‍टेकहोल्‍डर की भागीदारी की जरूरत है। यहां सभी स्‍टेकहोल्‍डर से मतलब स्‍कूल, स्‍टूडेंट, टीचर और पैरेंट्स हैं। स्‍कूलों में समय-समय पर लाइफ स्किल सेशन जरूर होने चाहिए। इनमें बच्‍चों को मॉरल एजुकेशन के साथ रीयल और रील लाइफ में फर्क को भी बताना होगा। बच्‍चों में अपने ग्रुप में पॉपुलर होने की फितरत होती है। उन्‍हें समझाना होगा कि इसके लिए वो गलत तरीका नहीं अपनाएं। उसके क्‍या नतीजे हो सकते हैं। सिर्फ उनके ही नहीं दूसरे के नजरिये से भी उन्‍हें यह बात बतानी होगी। इसके लिए लाइव एग्‍जाम्‍पल देने होंगे। बच्‍चों के साथ टीचर्स को भी प्रोफेशनल डेवलपमेंट प्रोग्राम से वास्‍ता कराने की आज की जरूरत है। टीचरों को ऐसे सेशन में शरारती बच्‍चों से निपटने के तरीके सिखाए जा सकते हैं।

वहीं, डॉ प्रीति के मुताबिक, बच्‍चों की फिजिकल एजुकेशन को चैनलाइज करने की जरूरत है। फिजिकल एजुकेशन सिर्फ नाम की नहीं होनी चाहिए। उन्‍होंने बताया कि कई स्‍कूल तो बोर्ड में अच्‍छे परफॉरमेंस के प्रेशर में आकर 10वीं और 12वीं कक्षा में स्‍टूडेंट के लिए फिजिकल एजुकेशन के पीरियड्स ही ड्रॉप कर देते हैं। यह करना कतई गलत है। उनकी ऊर्जा को सही दिशा में बढ़ाने के कई तरीके हैं और इन्‍हें अपनाया जाना चाहिए।