उच्चतम न्यायालय से बुधवार को कहा गया कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव पूर्व मुफ्त उपहार देने का वादा एक भ्रष्ट आचरण है और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत “रिश्वत” है जो चुनाव को अमान्य घोषित करने का आधार है।
तीन-न्यायाधीशों की पीठ वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर याचिका सहित विभिन्न याचिकाओं पर विचार कर रही थी, जिनमें चुनाव के दौरान पार्टियों द्वारा इस तरह के वादों का विरोध किया गया है।
याचिकाओं में निर्वाचन आयोग को इन पार्टियों के चुनाव चिह्नों को जब्त करने और उनका पंजीकरण रद्द करने की अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करने का निर्देश देने की मांग की गई है।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया ने प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ से कहा कि एस. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार और अन्य के मामले में शीर्ष अदालत की दो-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 2013 में दिए गए फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
शीर्ष अदालत ने 2013 के अपने फैसले में कहा था कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 में दिए गए मापदंडों की जांच और विचार करने के बाद, वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि चुनाव घोषणा पत्र में किए गए वादों को भ्रष्ट आचरण घोषित करने के लिये धारा 123 के तहत नहीं पढ़ा जा सकता है।
हंसारिया ने पीठ के समक्ष कहा कि एस. सुब्रमण्यम बालाजी मामले में शीर्ष अदालत का फैसला सही कानून नहीं बनाता है। पीठ में न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी शामिल हैं।
हंसारिया ने कहा, “जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 के तहत ‘रिश्वत’ को…. भ्रष्ट आचरण माना जाता है। ‘रिश्वत’ शब्द को किसी उम्मीदवार या उसके एजेंट या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी उम्मीदवार या उसके चुनाव एजेंट की सहमति से किसी उपहार, प्रस्ताव या वादे के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसका उद्देश्य किसी निर्वाचक को उनकी उम्मीदवारी के लिये पुरस्कार के रूप में प्रेरित करना है…।”
उन्होंने कहा, “इस प्रकार, राजनीतिक दल द्वारा किए गए वादे जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 (1) (ए) के अर्थ में रिश्वत के अलावा और कुछ नहीं हैं, जो एक भ्रष्ट आचरण है, और यदि उक्त धारा में उल्लिखित अन्य शर्तें पूरी होती हैं, तो यह अधिनियम की धारा 100(1)(बी) के तहत चुनाव को अमान्य घोषित करने का आधार है।”
इस मामले में सुनवाई बृहस्पतिवार को भी जारी रहेगी।