प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम का भंडार.. ‘ब्लडी डिलीशियस’ लाल चीटियों की चटनी को मिलेगा GI Tag?

भुवनेश्वर: लाल चींटियां काटती हैं तो इंसान तिलमिला उठता है। शरीर में जलन होती है और लाल चकत्ते पड़ जाते हैं। दंश अविस्मरणीय होता है, तो क्या इसका स्वाद भी न भूलने वाला होता है? आप सोचेंगे कि लाल चीटियों का काटा…जी हां, ओडिशा के मयूरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ जिलों में फैले सिमिलिपाल बायोस्फीयर रिजर्व की जनजातियों से पूछें तो जवाब हां होगा। स्थानीय लोग इन चीटियों को काई नाम से जानते हैं। यहां के लोगों के लिए चींटियां सैकड़ों सालों से खान-पान का हिस्सा रही हैं। लाल चीटियों से सबसे प्रसिद्ध चीज जो वे बनाते हैं वह है आंखों में पानी लाने वाली गर्म काई चटनी। लाल चीटियों की इस चटनी को सेलिब्रिटी शेफ गॉर्डन रामसे ने ‘ब्लडी डिलीशियस’ नाम दिया।

चटनी की प्रसिद्धि बढ़ने के साथ, ओडिशा ने अपनी ‘मयूरभंज की चटनी’ के लिए भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग मांगा है। एक बार दिए जाने के बाद, टैग यह दर्शाता है कि मयूरभंज की काई चटनी में विशेष गुण हैं जो अन्य चींटियों की चटनी में नहीं पाए जाते हैं।

ऐसे पकड़ते हैं चीटियां

रेड वीवर चींटी आमतौर पर सिमिलिपाल बायो रिजर्व के पेड़ों में पाई जाती हैं। खासकर आम, कटहल और पपीता जैसे फल देने वाले पेड़ों से इन्हें पकड़ा जाता है। इन्हें वीवर कहा जाता है क्योंकि चींटियों के झुंड घोंसले बनाते हैं, जो पत्ती को मोड़कर बनाते हैं। उनके घर आधे मीटर से अधिक लंबाई वाले होते हैं। काई चटनी बनाने के लिए वनवासी चींटियों के सुस्त होने पर सुबह-सुबह चींटियों और उनके अंडों को इकट्ठा करते हैं। मयूरभंज के मूल निवासी 53 वर्षीय गोबिंद नाइक कहते हैं कि पेड़ों पर घोंसलों से लाल चींटियों और उनके अंडों को इकट्ठा करना मुश्किल है। यदि आप एक घोंसले को हिलाते हैं या इसे तोड़ने की कोशिश करते हैं, तो नर समूहों में हमला करते हैं। वे पीढ़ियों से चींटियों को इकट्ठा करने में महारत हासिल कर चुके हैं।

धोने के बाद सुखाकर बनाते हैं चटनी

सिमिलिपाल क्षेत्र के बाहर काई चटनी को बढ़ावा देने का काम करने वाले मयूरभंज काई सोसाइटी के सदस्य नयाधर पाढ़ियाल कहते हैं कि वह बथुडी जनजाति से हैं जिसके बारे में माना जाता है कि उसने सबसे पहले काई चींटियों को खाया था। उन्होंने कहा कि सुबह-सुबह, चींटियों को एकत्र करने वाले घोंसलों को पेड़ों से अलग कर देते हैं और उन्हें पानी से भरी बोरियों या बाल्टियों में डाल देते हैं। चींटियां घोंसलों से बाहर निकल जाती हैं और कुछ ही घंटों में मर जाती हैं। धोने और सुखाने के बाद वे रसोई के लिए तैयार हैं।

10-20 रुपये में बेचते हैं

काई चटनी क्षेत्र के ग्रामीण बाजारों में एक आम दृश्य है। हरे केंदू और साल के पत्तों पर इसे दिया जाता है। एक पत्ते चटनी की कीमत 10-20 रुपये होती है। क्योंझर जिले के बांसपाल क्षेत्र के एक आदिवासी लाल चींटी संग्रहकर्ता सुकरा मुंडा कहते हैं कि चीटियों की चटनी की ग्रामीण और शहरी दोनों बाजारों में आजकल भारी मांग है।

साल भर रखते हैं चटनीं

क्योंझर के बैतरणी गांव के भुयांत्री किसान 60 वर्षीय दास परिहाल कहते हैं कि बचपन से मैंने काई की चटनी खाई है। इसका स्वाद अनोखा है। अलग-अलग रेसिपी बनती हैं, लेकिन असेंशियल चटनी एक साधारण रेसिपी होती है। आप साफ चींटियों को लें और उन्हें अदरक, लहसुन, मिर्च और स्वाद अनुसार नमक के साथ कूट लें। चटनी कमरे के तापमान पर छह महीने तक चलती है, और इसे भोजन और नाश्ते के साथ खाया जा सकता है। वैसे तो यह पूरे साल भर चलने वाला मसाला है, लेकिन जनजातियां ज्यादातर इसका सेवन बरसात और सर्दियों के मौसम में करती हैं, जब चींटियां अंडे देती हैं।

कुछ लोग तेल में तलकर बनाते हैं सूप

मूल चटनी चींटियों और उनके अंडों का पेस्ट होती है, लेकिन कई लोग पीसने से पहले उन्हें भून लेते हैं। क्योंझर के कांजीपानी गांव के भुइयां आदिवासी, 50 वर्षीय कंडुनी सन्नागी ने कहा कि हम इसे तेल और नमक में हल्का तलते हैं, हालांकि कुछ लोग इसे मोटा खाना पसंद करते हैं। काई के पेस्ट को गर्म पानी, नमक और मिर्च डालकर सूप में भी बनाया जा सकता है।

वैज्ञानिकों ने कहा, नहीं होती है विषाक्त

ओडिशा यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च एंड टेक्नोलॉजी (ओयूएटी) मयूरभंजन के वैज्ञानिक दीपक मोहंती ने मयूरभंज के काई एकत्र करने वालों की जीआई टैग के आवेदन में मदद की है। उन्होंने कहा कि चींटियों का एक प्रयोगशाला में परीक्षण किया चींटियों में कोई विषाक्तता नहीं है। उनके काटने से दर्द हो सकता है, लेकिन कोई नुकसान नहीं होता है। वास्तव में, उनके निष्कर्ष बताते हैं कि चींटियां विटामिन बी 12 के अलावा प्रोटीन, अमीनो एसिड, कैल्शियम, जिंक, आयरन, मैग्नीशियम और पोटेशियम जैसे खनिजों का एक समृद्ध स्रोत हैं।

कई बीमारियों का इलाज भी

आश्चर्य नहीं कि जनजातियां काई को प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली मानती हैं। वे खांसी और जुकाम के खिलाफ, कामोत्तेजक के रूप में, और जोड़ों के दर्द, हाइपरएसिडिटी, त्वचा के संक्रमण और पीलिया के इलाज के रूप में इसकी प्रभावशीलता मानते हैं। क्योंझर सदर प्रखंड के दानापुर गांव की 60 वर्षीय महिला पायो मुर्मू कहती हैं कि यह सांस की समस्याओं और पेट दर्द के लिए सबसे आजमाई हुई और परखी हुई दवा है।

पारंपरिक चिकित्सक चींटियों को 30 दिनों तक सरसों के तेल में डुबोकर और फिर उसे छानकर एक उपचारात्मक तेल तैयार करते हैं। यह बच्चे के तेल के रूप में और गठिया, गाउट, दाद और अन्य त्वचा रोगों के इलाज के रूप में प्रयोग किया जाता है। ये असत्यापित पारंपरिक मान्यताएं हैं।