पटनाः राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चार के परिणाम आ गए हैं। अगले साल 2024 में होने जा रहे लोकसभा के चुनाव का इसे सेमीफाइनल मानने वाले विपक्षी नेताओं के होश फाख्ता हो गए, जब मध्य प्रदेश में बीजेपी ने प्रचंड बहुमत से वापसी की और राजस्थान-छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से सत्ता झटक ली। वैसे राजस्थान की रवायत रही है कि पिछले दो दशकों से वहां हर बार जनता सत्ता बदल देती है। कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस की सरकारें मतदाता बनाते रहे हैं।मुस्लिम प्रेम ले डूबा कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को कर्नाटक जैसे करिश्मा की उम्मीद थी, लेकिन उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। पार्टी अब अपनी हार की समीक्षा करेगी। पर, सच यह है कि हार की समीक्षाओं से कांग्रेस कभी कुछ सीखती ही नहीं। वर्ष 2014 में कांग्रेस के हाथ से सत्ता गई तो पार्टी ने अपने सीनियर नेता एके एंटनी को हार की समीक्षा की जिम्मेवारी सौंपी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाई, जो उसके लिए घातक सिद्ध हुई। मुसलमानों के प्रति कांग्रेस की अंध श्रद्धा का परिणाम यह हुआ कि पार्टी को पराजय का मुंह देखना पड़ा और भाजपा ने हिन्दुत्व के अपने पारंपरिक हथियार से न सिर्फ अपनी जीत सुनिश्चित की, बल्कि आगे की राह भी आसान कर ली। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने प्रचंड जीत हासिल की।मुस्लिम प्रेम और एंटोनी की रिपोर्ट हालांकि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने हिन्दुत्व के प्रति अपने नरम रुख दर्शाने के लिए मंदिरों में पूजा-अर्चना की। जनेऊ धारण किया। खुद को ब्राह्मण बताने के तर्क गढ़े, पर उनके ही दल के कुछ नेता उनके परिवर्द्धित आचरण-रूप को खारिज करते दिखे। उनके ही दल के नेता पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के बजट पर पहला हक मुसलमानों का बनता है। देश में औसतन 14 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। किसी-किसी सूबे में तो यह आबादी 25-27 प्रतिशत तक है। पारंपरिक तौर पर मुसलमान भाजपा से नफरत करते रहे हैं। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की जीत की बड़ी वजह मुसलमानों का थोक वोट मिलना था। मुसलमान वोट पहले अलग-अलग कारणों से विभाजित हो जाते थे, लेकिन 2014 के बाद यह परंपरा बन गई कि मुसलमान गैर भाजपा किसी भी दल को अपना वोट देने के लिए तैयार हैं, जिसमें जीत की संभावना नजर आती है।किस प्रदेश में कितने मुस्लिम वोटर तेलांगना में कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। वहां मुस्लिम वोटर 13 प्रतिशत हैं। कर्नाटक में भी मुस्लिम आबादी 13 प्रतिशत है और इसका कमाल सभी देख चुके हैं। कांग्रेस ने बीजेपी से सत्ता झटक ली थी। केरल और पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोटर 27 प्रतिशत हैं। केरल में वाम दलों की सरकार है तो पश्चिम बंगाल में टीएमसी की सरकार। मसलन जहां-जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक संख्या में हैं, वहां उनके थोक वोट गैर भाजपा दलों को मिलते हैं, जिनमें जीत की संभावना रहती है। यूपी में 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के बावजूद भाजपा की बुलंदी इसलिए बरकरार है कि उसने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति नहीं अपनाई। बल्कि भाजपा ने हिन्दुत्व के सहारे अपने हिन्दू वोटरों को गोलबंद किया। इससे जातियों-उपजातियों में बंटे 80 फीसद हिन्दू वोटरों का भाजपा को साथ मिल गया। बिहार की बात करें तो मुसलमानों के थोक वोट के लिए आरजेडी ने ड-ल् समीकरण ही बना लिया है। नीतीश कुमार पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगते रहे हैं। इसका फायदा भी उन्हें 2005 से 2015 तक विधानसभा चुनावों में मिला। यह अलग बात है कि नीतीश के ज्यादा समय भाजपा के साथ रहने के कारण मुसलमान उनसे बिछड़ गए और 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू से एक भी मुस्लिम विधायक नहीं जीता।कांग्रेस अब भी सबक नहीं ले रही कांग्रेस को अब भी लगता है कि मुसलमानों के साथ के बिना उसका भला नहीं होने वाला है। इसकी बड़ी वजह कर्नाटक और तेलंगाना में उसे मिली कामयाबी है। तेलंगाना में पहली बार कांग्रेस को सत्ता मिली है। बाबरी विध्वंस की बरसी के दिन 6 दिसंबर को कांग्रेस ने विपक्षी गठबंधन प्छक्प्। की बैठक बुलाई है। कांग्रेस फिलहाल विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कर रही है। संभव है कि 6 दिसंबर की तारीख कांग्रेस ने जान-बूझ कर तय की है, ताकि भावनात्मक रूप से मुसलमानों को जोड़ा जा सके। यद्यपि कि तुष्टिकरण के दुष्परिणाम दो राज्यों में अपनी सत्ता गंवा कर कांग्रेस देख चुकी है। इसी तुष्टिकरण की ओर एंटोनी कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में 10 साल पहले इशारा किया था। कांग्रेस की गारंटी भाजपा का हिंदुत्व सर्वाेच्च न्यायालय की आपत्ति के बावजूद गारंटी के नाम पर कांग्रेस ने लुभावने वादे किए। दूसरे विपक्षी दलों ने भी ऐसे वादों में कोई कोताही नहीं की। इसके बावजूद गारंटी वाले लुभावने वादों को जनता ने पांच राज्यों में ज्यादा तवज्जो नहीं दी। आम आदमी पार्टी का सत्ता का खेल इन्हीं लुभावने वादों से शुरू हुआ था। दिल्ली के बाद पंजाब में उसे सफलता मिली तो आम आदमी पार्टी ने इसका दूसरे राज्यों में भी विस्तार किया। दूसरे विपक्षी दल भी उसकी नकल करते नजर आए। कांग्रेस ने तो इसका नाम बदल कर गारंटी रखा। लेकिन भाजपा ने हिन्दुत्व के अपने आजमाए हथियार का ही इस्तेमाल किया।मोदी का मैजिक 2024 में भी चलेगा विपक्षी दलों के साथ देश की नजर भी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों पर टिकी थी। भाजपा ने पहली कोशिश यह की कि चुनावी राज्यों में सीएम का कोई चेहरा सामने नहीं रखा। नरेंद्र मोदी के नाम पर ही वोट मांगे गए। मसलन मोदी के नाम पर विधानसभा में कामयाबी मिली तो लोकसभा चुनाव में कैसे नहीं मिलेगी? यानी नरेंद्र मोदी की राह 2024 में भी आसान दिखती है। संयोगवश जनवरी में अयोध्या में बने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा होनी है। राम के सहारे भाजपा लगातार बढ़ती रही है। कभी लोकसभा में दो सदस्यों वाली भाजपा आज कहां है, यह बताने की जरूरत नहीं। मसल मोदी का मैजिक अब भी बरकरार है। क्या नीतीश कुमार की लगेगी लॉटरी बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने भाजपा के खिलाफ न सिर्फ आरजेडी से हाथ मिलाया, बल्कि नरेंद्र मोदी को सत्ता से बेदखल करने के लिए विपक्षी दलों को एकजुट करने का अभियान भी शुरू किया। इस अभियान की शुरुआत पहले बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने की थी और बाद में तेलंगाना के अब पूर्व सीएम बन चुके केसी राव ने किया था। बाद में दोनों किनारे हो गए तो नीतीश कुमार सामने आ गए। हालांकि नीतीश ने विपक्षी एकता का आरंभ तमाम अपेक्षाएं छोड़ कर किया। यानी वे पीएम पद की रेस में नहीं हैं। इसके बावजूद नीतीश के बारे में उनकी पार्टी जेडीयू और सहयोगी दल आरजेडी के नेता यह कहते रहे हैं कि पीएम पद के लिए वे सर्वथा उचित चेहरा हैं। कांग्रेस ने अपना दबदबा बनाए रखने के लिए पांच राज्यों के चुनाव तक विपक्षी गठबंधन की सारी गतिविधियां स्थगित कर दीं। शायद कांग्रेस को यह उम्मीद थी कि परिणाम उत्साहजनक आएंगे और उसे सहयोगी दलों पर दबाव बनाने का मौका मिल जाएगा। ऐसा नहीं हो पाया। इसलिए उम्मीद जगती है कि एक बार फिर नीतीश कुमार की लॉटरी लग सकती है।