
क्यों पड़ा टुंडे कबाब नाम?
भोपाल के शाही महलों में हाजी मुराद अली खानसामे का कार्य करते थे। 1900 के करीब उन्होंने लखनऊ का रुख किया। वर्ष 1905 में उन्होंने लखनऊ पुराने शहर में एक छोटी सी दुकान खोली। रसीले कबाबों की सुगंध और स्वाद ने लोगों की जुबान को अपना दीवाना बनाना शुरू किया। इसके बाद यह कबाब टुंडे के नाम से मशहूर होने लगा। इसके पीछे की कहानी काफी रोचक है। दरअसल, हाजी मुराद अली का एक हाथ नहीं था। हाजी मुराद अली पतंग उड़ाने के बेहद शौकीन थे। एक बार पतंग उड़ाते समय उनका एक हाथ घायल हो गया था। इसकी वजह से उन्हें अपना घायल हुए हाथ कटवाना पड़ गया। हाथ कटने के बाद हाजी साहब अपनी दुकान पर बैठने लगे, लेकिन इस दौरान जो भी दुकान पर कबाब खाने आता तो उन्हें एक हाथ न होने की वजह से टुंडे कहकर बुलाता था। बस यहीं से टुंडे कबाब को एक नई पहचान मिल गई, जो आज के समय में दुनियाभर में मशहूर है।
हाजी मुराद अली के एक हाथ से बनाया हुआ कबाब लोकप्रिय होने लगा तो हर कोई इसका नाम टुंडे कबाब कहा जाने लगा। बाद में यह एक ब्रांड बन गया। हाजी मुराद अली ने अपने पूरे जीवन कबाब के स्वाद को कभी कम नहीं होने दिया। गुणवत्ता से समझौता नहीं किया। रईस अहमद के सामने पिता के स्वाद को बरकरार रखने की चुनौती थी। वे योग्य उत्तराधिकारी साबित हुए। उनके बेटे उस्मान अहमद कहते हैं कि हमारे पिता परिवार के सदस्यों और कर्मचारियों से गुणवत्ता या स्वाद में कोई समझौता नहीं करने की चेतावनी देते थे। रईस ने मुराद अली की न केवल प्रतिष्ठा बढ़ाई, बल्कि स्वाद के दीवानों के बीच टुंडे कबाब की प्रतिष्ठा को बढ़ाया। कबाब किंग तक के रूप में उन्हें जाना जाता था।
कबाब का इतिहास है काफी पुराना
कबाब का इतिहास काफी पुराना है। भले ही हाजी मुराद अली अपनी रेसिपी के साथ वर्ष 1905 में लखनऊ की सड़कों पर आए हों। इससे भी करीब एक शताब्दी पहले इसकी खोज की गई थी। दरअसल, रईस अहमद के पुरखे भोपाल के नवाब के यहां खानसामा थे। बताते हैं नवाब साहब खाने के बहुत शौकीन थे। यही वजह थी कि जब नवाब साहब और उनकी बेगम बूढ़े हुए तो उन्हें नॉनवेज खाने में परेशानी होने लगी। उस समय उनके लिए ऐसे कबाब बनाये गए, जो मुंह में रखते ही घुल जाएं। यानी, जिन्हें बिना दांतों के ही आसानी से खाया जा सके। इसके स्वाद के लिए चुन-चुन कर विशेष मसाले डाले जाते हैं। इसके कुछ साल बाद ही हाजी परिवार भोपाल से लखनऊ आ गया था। यहां लखनऊ में अकबरी गेट के पास गली में सबसे पहली छोटी सी दुकान खोली थी।
मसाला आज भी है सीक्रेट
टुंडे कबाब को लोग स्वाद की वजह से बहुत पसंद करते हैं। इसका कारण है कि इसे खाने वालों को टुंडे के कबाब जैसा स्वाद कहीं दूसरी जगह नहीं मिलता है। बताया जाता है कि टुंडे कबाब में आज भी 100 साल पुराने मसालों का ही उपयोग किया जाता है। कबाबों में वही मसाले इस्तेमाल किए जाते हैं, जो कबाबों को हजम करने में मदद करती हैं। हाजी परिवार के सदस्य उस्मान बताते हैं कि नॉनवेज आसानी से नहीं पचता, लेकिन हमारे कबाब आसानी से पच जाते हैं। इनमें डाले जाने वाले कुछ मसाले ईरान से मंगाए जाते हैं। मसालों को हाजी साहब के परिवार के सदस्य ही तैयार करते हैं। महीनेभर का मसाला एक साथ पीसकर तैयार किया जाता है।
कबाब बनाने की विधि को हाजी साहब के परिवार के कुछ लोगों को छोड़कर दूसरा कोई नहीं जानता। यही इनका ट्रेड सीक्रेट है। टुंडे कबाब के आउटलेट्स लखनऊ में चौक स्थित अकबरीगेट, अमीनाबाद और अब कपूरथला में मौजूद हैं। मसाले आज तक रहस्य हैं, इस कारण इसकी नकल करने वालों को इसका स्वाद हासिल करने में सफलता नहीं मिलती है। रईस के परिजन कहते हैं कि यह हमारे लिए लखनऊ के लिए प्यार की सु्गंध थी, जिसने हमें दुनिया भर तक पहुंचाया।
मिला था सउदी अरब की नागरिकता का ऑफर
टुंडे कबाब की तीसरी पीढ़ी के सदस्य उस्मान अहमद एक किस्सा बताते हैं। वर्ष 1958 में हाजी मुराद अली हज के लिए मक्का गए थे। इस दौरान अपने शिविर में वे जो खाना बना रहे थे, उसकी सुगंध दूर तक फैल रही थी। एक स्टेट के गवर्नर को इस सुगंध ने अपना दीवाना बनाया। खाना पकाने के स्वाद से वे इतना प्रभावित हुए कि मास्टर शेफ को पवित्र भूमि की नागरिकता का ऑफर दे दिया। उस्मान कहते हैं कि हाजी साहब ने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। दरअसल, हाजी उस्मान लखनऊ से इतना प्यार करते थे कि इसे छोड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। अपने जन्मस्थान को उन्होंने सउदी अरब की नागरिका पर तरजीह दी।
पिता मुराद अली की तरह ही रईस अहमद के लिए कबाब बेचना कोई धंधा नहीं था। रईस के लिए यह लोगों के पेट भरने का जरिया था। एक बार उन्होंने कहा था कि हमने कभी भी भारी मुनाफा कमाने में विश्वास नहीं किया। हमने सबसे गरीब लोगों को ध्यान में रखते हुए कबाब के दाम निर्धारित किए हैं। उस्मान अहमद कहते हैं कि रईस को हमारी ओर से सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम अपने कस्टमर्स को वैसी ही तृप्ति और खुशी देते रहें, जैसा हमारे पूर्वज हमेशा चाहते थे। वह कहते हैं कि यह उनके लिए लोगों का प्यार ही था कि इतने वर्षों के बावजूद हाजी रईस अहमद अपने आखिरी दिन में उतने ही सचेत और जीवित थे, जितने कि उन्हें जानने वाले सभी याद रखेंगे।
दिल्ली में टुंडे कबाब पर दावा
एक रिपोर्ट के मुताबिक, लखनऊ में मशहूर टुंडे कबाब को नई दिल्ली में फ्रेंचाइजी के जरिए होटलों में इसी नाम से बेचा जा रहा था। यह मामला कोर्ट तक पहुंचा था। इसके खिलाफ मोहम्मद उस्मान ने याचिका दाखिल की थी। कोर्ट ने मो. उस्मान के पक्ष में ही फैसला सुनाया। पुराने लखनऊ में 1905 से बेचे जा रहे टुंडे कबाब को ही असली माना था, जिन्हें हाजी मुराद अली टुंडे ने बनाना शुरू किया था। हाई कोर्ट में उस्मान ने बताया कि हाजी मुराद अली (एक हाथ नहीं था) ने 1905 में पुराने लखनऊ के गोल दरवाजा गली में कबाब की दुकान शुरू की थी। उन्हें इस विशिष्ट कबाब के लिए लखनऊ के नवाब द्वारा संरक्षण दिया गया। इसकी वजह से ‘टुंडे कबाब’ नाम को लोकप्रियता मिली। इसकी रेसिपी किसी को आज तक जाहिर नहीं की गई है। उस्मान का कहना था कि 1995 में इसे ट्रेड मार्क बनाकर लखनऊ में उनके पिता हाजी रईस अहमद ने अमीनाबाद में दुकान शुरू की थी।
90 साल के थे रईस
लखनऊ के 125 साल पुराने टुंडे कबाब की दुकान के मालिक हाजी रईस अहमद का दिल का दौरा पड़ने से शुक्रवार की शाम निधन हो गया है। वे करीब 90 साल के थे। रईस के निधन के बाद शहर के सभी टुंडे कबाब की दुकानों को आज बंद रखने का निर्णय लिया गया है। स्वाद के दीवानों ने भी रईस के निधन पर दुख जताया है। टुंडे कबाब के बारे में एक बात जो हर कोई कहता है कि एक बार यहां का स्वाद लिया और आप कितने साल भी बीत जाए, यहां आएंगे। खाएंगे तो वही स्वाद पाएंगे। रईस अहमद ने इस उपलब्धि को बरकरार रखा। पिता की विरासत को आगे बढ़ाया। 1905 में हाजी मुराद अली की ओर से शुरू की गई विरासत को अब उस्मान अहमद आगे बढ़ाएंगे। हाजी मुराद की परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाई जा रही है। लोगों को टुंडे कबाब का जायका दे रही है। लेकिन, आज टुंडे कबाब अपने रईस के निधन से दुखी है।
(इनपुट : अभय सिंह)